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________________ आध्यात्मिक आलोक 371 ___ उच्चकुल, जाति या भौतिक वैभव काम नहीं आएगा । पवित्र हृदय से की गई करणी ही काम आएगी और करणी के अनुसार ही सुगति मिलेगी । धर्म क्रिया करने से व्यावहारिक जीवन में कुछ गंवाना नहीं पड़ता, बल्कि वह भी अत्यन्त सुख-शान्तिदायक बन जाता है । व्रतों की सीमाएं इस प्रकार निर्धारित की गई हैं कि प्रत्येक वर्ग अपने जीवन-व्यवहार को भलीभांति निभाता हुआ भी उनका पालन कर सकता है और अपनी आत्मा को कर्म के बोझ से हल्का बना सकता है । जो समस्त सांसारिक व्यवहारों से मुक्त होकर पूर्ण रूप से व्रतों का पालन करना चाहता है, वह अपनी आत्मा का कल्याण शीघ्र कर सकेगा । किन्तु जो इतना करने में समर्थ नहीं है वह भी एक सीमा बाँध कर व्रती बन सकता है । प्रजापति ढंक यद्यपि कुंभकार की आजीविका करता था तथापि वह सन्तोषी था । उसने अपने भोगोपभोग की मर्यादा कर ली थी और इच्छाओं को सीमित कर लिया था। त्रिकालवेत्ता मुनि होने के कारण भगवान महावीर स्वामी के सामने सभी बातें हस्तामलकवत हों, इसमें आश्चर्य की बात नहीं है । जमीन फोड़ने के साथ दिल फोड़ने का काम भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं था । बहुत-से काम ऐसे होते हैं जिनमें ऊपरी दृष्टि से महारंभ नहीं दिखाई देता, बल्कि विशेष आरंभ भी मालूम नहीं होता, तथापि उन्हें यदि सजगता एवं निर्लोभ भाव से नहीं किया जाय तो वह महारंभ का रूप ले लेते हैं । उदाहरण के लिए वकालत के धध को ही लीजिए | इस धन्धे में विशेष आरम्भ-समारम्भ नहीं मालूम होता । शुद्ध न्याय की प्राप्ति कराने में सहायता देना वकील का कार्य है । किन्तु यदि कोई वकील सत्य-असत्य की परवाह न करके केवल आर्थिक लाभ के लिए असत्य को सत्य और सत्य को असत्य सिद्ध करता है और जान-बूझ कर निरपराध को दण्डित कराता है तो वह अपने धन्धे का दुरुपयोग करके महान आरम्भ का, पाप का कार्य करता है। यह दिल फोड़ने वाला कार्य है। इसी प्रकार जुआ खेलने में भी प्रत्यक्ष आरम्भ दिखाई न देने पर भी घोर आरम्भ समझना चाहिए । द्यूत सात कुव्यसनों में गिना गया है । यह श्रावक के योग्य कार्य नहीं है। __ इस अपेक्षा से हल और कुदाली चलाने वाला छोटी हिंसा करता है-बाह्य हिंसा करता है। किन्तु वचनों द्वारा हृदय फोड़ने वाला दोचार की नहीं, हजारों की हिंसा भी कर सकता है । अतः हर कार्य में विवेक की आवश्यकता है । सच्या व्रती साधक वह है जो हाथों-पैरों के साथ अपनी वाणी और इन्द्रियों को भी वश में रखता
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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