SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 354 आध्यात्मिक आलोक मनि को क्या कम आघात लगा था ? फिर भी ये प्रातःस्मरणीय मुनिराज क्षमा के प्रशान्त सागर में ही अवगाहन करते रहे । क्रोध की एक भी चिनगारी उनके हृदय में उत्पन्न नहीं हुई। इसका क्या कारण था ? यही कि वे अपने शरीर को भी अपना नहीं मानते थे । वे समझ चुके थे कि इस नाशशील पौद्गलिक शरीर का मेरी अविनश्वर चिन्मय आत्मा के साथ कोई साम्य नहीं है। इसी कारण वे शारीरिक यातना के समय भी समभाव में विचरण करते रहे और आत्मकल्याण के भागी बने । ___साधारण संसारी प्राणी लोभ का दास है । वह भूमि और धन आदि के संग्रह की वृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। उसने सभी द्वार खोल रखे हैं। . व्यवसाय में मुनाफा होगा तो फूला नहीं समाएगा । नवीन मकान बनवाएगा तो पड़ौसी की दोचार अंगुल जमीन दबाना चाहेगा । इस प्रकार जिन्होंने अंकश नहीं लगाया है, वे बाह्य वस्तुओं का विस्तार करेंगे और उसी में आनन्द मानेंगे । उनके प्रत्येक व्यवहार, वचन और विचार से लोभ का निर्झर ही प्रवाहित होगा। जो व्यापारी या दुकानदार है, उसे खेत या जमीन का लालच नहीं होगा, क्योंकि उस ओर उसका आकर्षण नहीं है । अगर कोई गृहस्थ व्यापार भी करता है, कृषि भी करता है, मोटर-सर्विस और सिनेमा भी चलाता है तो चारों दिशाओं में , उसके लालच का विस्तार होगा । लालच में पड़कर वह असत्य भाषण करेगा, अदत्त का ग्रहण करेगा और न जाने कौन-कौन से पाप करेगा । पाप का बाप लोभ और पाप की मां कुमति है । समस्त पापों को अंकुरित करना, जन्म देना और विस्तार करना लोभ का काम है, किन्तु कुमति का सहयोग न हो तो पापों का विस्तार नहीं हो सकता । पाप का विषैला बीज कुमति रूपी क्षेत्र में ही फलता-फूलता है । सन्तोष के बिना शान्ति और सुख नहीं मिलता और विरतिभाव के बिना सन्तोष नहीं मिलता । लोभ-लालच को जीतने का उपाय सन्तोष ही है । "लोह संतोसओ जिणे' अर्थात् लोभ को सन्तोष से जीतना चाहिए, यह अनुभवी महापुरुषों का वचन है। ज्ञान अपने आप में अत्यन्त उपयोगी सदगुण है किन्तु उसकी उपयोगिता विरतिभाव प्राप्त करने में है । जितने भी अध्यात्म-मार्ग के पथिक महापुरुष हुए हैं, उन्होंने हिंसा, कुशील आदि से विमुख हो कर कषायों का भी निग्रह किया । ये आन्तरिक पाप शीघ्र पकड़ में नहीं आते । बिजली को पकड़ने के लिए विशिष्ट साधन का उपयोग करना होता है । उससे बचने के लिए रबर, लकड़ी आदि का सहारा लेना पड़ता है। इसी प्रकार क्रोधादि रूप बिजली से बचने के लिए विरतिभाव . का आश्रय लेना चाहिए।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy