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________________ 340 आध्यात्मिक आलोक मुनि रूपकोषा के भवन में ठहरे थे । उनकी आत्मा इतनी प्रबल नहीं थी कि वह उस वातावरण पर हावी हो जाती, अपनी पवित्रता और सात्विकता से उसे परिवर्तित कर देती, जहर को अमृत के रूप में परिणत कर देती । परिणाम यह हुआ कि उस वातावरण से उनकी आत्मा प्रभावित हो गई । जब आत्मा में निर्बलता होती है तो आहार-विहार, स्थान और वातावरण आदि का प्रभाव उस पर पड़े बिना नहीं रहता । अतएव साधक को इन सबका ध्यान रखना चाहिए और इनकी शुद्धि को आवश्यक समझना चाहिये। उक्ति है - 'संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति अर्थात् मनुष्यों में दोषों और गुणों की उत्पत्ति संसर्ग से होती है । यदि उत्तम विचार वाले का संसर्ग हो तो सत्कर्मों की प्रेरणा मिलती है । समान या उच्च बुद्धि वाले की संगति हो तो वह मार्ग से विचलित होने पर बचा लेगा । इसके विपरीत यदि दुष्ट साथी मिल गए तो फिसलते को और एक धक्का देंगे। तो रूपकोषा की प्रेरणा से मुनि रत्नकंबल लाने को उद्यत हो गए । पहाड़ी भूमि की दुर्गमता निराली होती है । वहां घुमावदार ऊँचे-नीचे ऊबड़-खाबड़ रास्ते से जाना पड़ता है, झाड़ियों से उलझना पड़ता है और जंगली जानवरों के बीच से मार्ग तय करना पड़ता है। मुनि ने बाहर का भय जीत लिया है और पाप के भय को पीठ पीछे कर दिया है । वे यह भी भूल गए हैं कि लौटते समय वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाएगा और तब विहार करना भी निषिद्ध होगा, तब क्या होगा? मुनि अडोल भाव से पहाड़ों और वनों को पार करते हुए नेपाल देश में जा पहुँचे । फिर राजधानी में भी पहुँच गए । उन्हें खाने-पीने की सुधि नहीं थी, एक मात्र रत्नकंबल प्राप्त करने की उमंग थी । उन्हें बतलाया गया था कि नेपाल नरेश रत्नकंबल वितरण करते हैं । उन्हें ख्याल ही नहीं आया कि जिसके शरीर पर साधारण वस्त्र का भी ठिकाना नहीं वह किसके लिए रत्नजटित कंबल की चाह करता है ? यह निमित्त (रूपकोषा) वास्तव में चक्कर में डालने वाला नहीं, उबारने वाला है। मुनि इस बात से प्रसन्न हैं कि वह सफलता के द्वार तक आ पहुंचा है। नहीं सोच सकता कि उस रत्नकंबल का क्या होगा ?
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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