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________________ 338 आयात्मिक आलोक चलकर सा छेदन नेवन करने वाला बन सकता है। चरितानुयोग में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि हिंसक हिंस्य बन नपा, छेदक को छेद्य बनना पड़ा और भेदक को भेद्य बनना पड़ा। मनुष्य अपने को सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्यशाली और जीवजगत् का सम्राट् समझता है, मगर सम्राट् सदा सम्राट् नहीं बना रहेगा, एक समय ऐसा आ सकता है जब उसे रंक की स्थिति में आना पड़े। मनुष्य को कीट पतंग और वनस्पति आदि के रूप में भी जन्म लेना पड़ता है । उस समय यह सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्य कहां पाओगे ? इस अल्पकालीन वर्तमान वैभव की चकाचौंध में अनन्त भविष्य को क्यों आंखों से ओझल कर रहे हो ? जो अपने को विशिष्ट सामर्थ्यशाली समझता है उसमें भविष्य को देखने का भी सामर्थ्य होना चाहिए न ! इन सब स्थितियों को यथावत् जानकर देशविरत श्रावक पाप से भय मानता. है । अज्ञानी व्यक्ति ही पाप से नहीं डरते | पाप का भय भाव में है । लोक-परलोक का भय मोह के कारण होता है । पाप का भय आत्मा की निर्बलता को उत्पन्न करता है, वह उत्थान का कारण है । कई लोग पाप से तो नहीं डरते किन्तु अपयश और अपवाद से डरते हैं । ऐसे लोग जीवन को उच्च कक्षा पर आरूढ़ नहीं कर सकते | उनमें एक प्रकार की लोकेषणा है । जब अपवाद एवं अपयश की संभावना न हो तो उनकी पाप में प्रवृत्ति भी हो सकती है । अतएव . पाप से भयभीत न होकर केवल लोकापवाद से भयभीत होने वाला साधक सफल नहीं होता । जो पापभय को प्रधान और लोकभय को गौण समझता है, वही साधक उत्तम माना जाता है। सिंहगुफावासी, सर्प की बांबी पर साधना करने वाले और कुएँ की पाल पर अप्रमत्त रहने वाले मुनियों ने भय को जीता, प्रमाद को जीता और पापभय से भी बचे, अतएव वे अपनी साधना में सफल होकर गुरुचरणों में पहुंचे। अध्यवसायों की तीन अवस्थाएं होती हैं-१) वर्द्धमान (२) हीयमान और (B) अवस्थित । चित्त की परिणति या तो उच्च से उच्चतर दशा की ओर बढ़ती हुई होती है या नीचे की ओर गिरती हुई होती है अथवा अवस्थित अर्थात ज्यों की त्यों स्थिर रहती है । उत्तम कोटि के साधक वर्द्धमान स्थिति में रहते हैं और मध्यम श्रेणी के अवस्थित कोटि में | उत्तम कोटि के साधक आठवें गुणस्थान से निरन्तर ऊँचे चढ़ते हुए बारहवें गुणस्थान में जा पहुँचते हैं और सिद्धि का झंडा गाड़ देते हैं । उनकी आत्मा में अनन्त ज्ञान की ज्योति जगमगाने लगती है । मध्यम साधक छठे-सातवें गुणस्थान तक ही रह जाता है । निम्नकोटि का साधक हीयमान दशा में
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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