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________________ 327 आध्यात्मिक आलोक मोक्षमार्ग का साधक, चाहे वह मुनि हो या गृहस्थ, जीवनरक्षण और शरीर-रक्षण के लिए ही भोजन करता है, रसना की तृप्ति के लिए नहीं, स्वादलोलुपता से प्रेरित होकर नहीं । इसी उद्देश्य से यह कहा गया है कि श्रावक तुच्छ औषधियों के प्रयोग को भी सीमित करे। अतिचारों की गणना में 'औषधि' शब्द का प्रयोग विशेष अभिप्राय से किया गया है। उसमें कुछ रहस्य निहित है । प्रत्येक तुच्छ वनस्पति-धान्य को औषधि या औषध कहा है । 'औषं-पोष धत्ते-धारयति, इति औषधिः ।' यह इस शब्द की व्युत्पत्ति है, जिसका अभिप्राय यह है कि जो शरीर को पुष्टि प्रदान करे, वह औषधि कहलाती है । मूल औषधि या दवा धान्य वनस्पति है । लोग समझते हैं कि 'नेचरोपैथी' पश्चिम की देन है, मगर जिन्होंने भारतीय साहित्य-सागर में अवगाहन किया है, वे भलीभाँति समझ सकते हैं कि इसका मूल भारत में है । उत्तराध्ययन सूत्र के मृगापुत्रीय अध्ययन को जो विचारपूर्वक पढ़ेगे, वे इस तथ्य से परिचित होंगे। भारत के मनीषी बहुत प्राचीन काल से प्राकृतिक उपचार के महत्व को जानते थे । आज भारतवासी उसके महत्व को भूल रहे हैं और पश्चिम के लोग उसकी उपयोगिता को स्वीकार कर रहे हैं, यह एक विस्मय की बात है। प्राकृतिक चिकित्सा के मुकाबिले में अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हुई हैं। आज इस देश में विदेशी दवाओं का इतना अधिक प्रचार हो गया है कि भारत की आयुर्वेदिक औषधों को भी उनके समान गोलियों, केप्सूलों और इंजेक्शनों के ढाँचे में ढालना पड़ा । आयुर्वेद का विधान है - 'ज्वरादौ लंघनम् पध्यम्' अर्थात् बुखार आते ही उपवास कर लेना चाहिए, किन्तु आज इस बात पर कौन विश्वास करता है ? सूर्य की किरणें और जल आदि प्राकृतिक वस्तुएं बड़ी लाभदायक औषधियां हैं। ऋषि-मुनियों के दीर्घ जीवन का कारण उनका प्राकृतिक वस्तुओं का सेवन है । कई प्राणी जीभ से चाट चाट कर अपना घाव ठीक कर लेते हैं । मगर लोगों को प्राकृतिक चिकित्सा पर आज भरोसा नहीं रहा है । वे अपवित्र एलोपैथिक औषधियों का सेवन करके अपना धर्म विनष्ट करते हैं । शास्त्र की दृष्टि से समस्त धान्य औषधि की कोटि में आते हैं। यदि विधिपूर्वक इनका सेवन किया जाय तो वे स्वास्थ्यप्रद सिद्ध होते हैं । हां, अविधि से सेवन करने पर वे अवश्य रोगोत्पादक हो सकते हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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