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________________ आध्यात्मिक आलोक 315 है। सामान्य लोग भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं, जब कि साधु उनके त्याग की और उनकी अभिलाषा न करने की साधना करता है । शुद्ध आत्मोपलब्धि ही उसकी साधना का उद्देश्य होता है । गृहस्थ और साधु के जीवन की साधनाएं दो प्रकार की होती हैं- सामान्य साधना और विशिष्ट साधना । षट् आवश्यक करना, स्वाध्याय करना, ध्यान करना, व्रतों का पालन करना आदि दैनिक साधना सामान्य साधना कहलाती हैं । विशेष साधना वह है जो विशिष्ट पर्व आदि के अवसरों पर की जाती है । चातुर्मास के समय की जाने वाली अतिरिक्त साधना भी विशिष्ट साधना के अन्तर्गत है। सामान्य साधना के समय तीनों मुनियों के मन में ईष्याभाव था । ईर्ष्या के बदले अगर स्पर्द्धा का भाव होता और वे काम-विजय के लिए चित्त को वशीभूत करने का विशिष्ट अभ्यास करते तो उनके हित में अच्छा होता । स्वस्थ स्पर्द्धा दूसरे के उत्थान एवं विकास में बाधक नहीं बनती । उसमें दूसरों का भी विकास वांछित होता है पर उसकी अपेक्षा अपना अधिक विकास अभीष्ट होता है । अतएव यह एक अच्छा गुण कहा जा सकता है । दान, सेवा, ईश्वर-भक्ति, स्वाध्याय, सत्संग आदि में प्रतिस्पर्धा का भाव हो तो अवांछनीय नहीं वरन् अभिनन्दनीय गिना जा सकता है, मगर ईर्ष्या होना अनुचित है। ईर्ष्या में दूसरे के प्रति जलन होती है, द्वेष होता है । इससे आत्मा मलिन बनती है । ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरे को गिराने का षड्यन्त्र रचता रहता है और ऐसी दुषित भावना से वह स्वयं गिर जाता है, दूसरा कदाचित् गिरे या न भी गिरे। एक बार तीनों मुनियों ने परस्पर विचार-विमर्श किया और वे मिलकर गुरुजी के निकट पहुँचे । यथोचित वन्दन एवं नमस्कार करके उन्होंने सिंहगुफावासी मुनि के लिए रूपकोषा के घर जाकर साधना करने की अनुमति मांगी । ___ गुरुजी बड़े असमंजस में पड़ गए । वे इन मुनियों के मनोभाव को भलीभाँति जानते थे । उन्हें पता था कि साधना की इस मांग के पीछे सहज भाव नहीं है, अहंकार को तुष्ट करने की ही भावना प्रधान है । स्थूलभद्र के प्रति ईर्ष्याभाव ने इन्हें इसके लिए उद्यत किया है। स्थूलभद्र जिस वासना पर विजय प्राप्त करके यशस्वी बने, उसे जीतना प्रत्येक के लिए सरल नहीं है । ऐसी पात्रता प्राप्त करने के लिए विशिष्ट भूमिका होनी चाहिए । इन तीनों में अभी तक उस भूमिका का निर्माण नहीं हो सका है। सिंहगुफावासी अनगार सात्विक भाव वाला है अवश्य, पर इस समय ईर्ष्या के कारण उसके सात्विक भाव में कुछ मलिनता ही आई है । उत्कर्ष के बदले इसकी विशुद्धि का अपकर्ष हुआ है । नीतिकार कहते हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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