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________________ आध्यात्मिक आलोक 297 प्रमाद आकर मनुष्य के हृदय पर जब अधिकार जमा लेता है तो श्रवण और वचन में शिथिलता आ जाती है । वास्तव में यही दोनों बाधक तत्व सर्वविरति और देशविरति की साधना को मलिन बनाते हैं। इसी कारण शास्त्र-वचन इन बाधक तत्त्वों से साधक को सावधान करता है । लोभ और कषाय ये दोनों परिग्रह, परिमाण, व्रत में विशेष रूप से बाधक हैं । कई साधक इसके प्रभाव से अपने व्रत को दूषित कर लेते हैं । उदाहरणार्थ - किसी साधक ने चार खेत रखने की मर्यादा की । तत्पश्चात् उसके चित्त में लोभ जगा । उसने बगल का खेत खरीद लिया और पहले वाले खेत में मिला लिया । अब वह सोचता है कि मैंने चार खेत रखने की जो मर्यादा की थी, वह अखण्डित है । मेरे पास पांचवां खेत नहीं है । इस प्रकार आत्म-वंचना की प्रेरणा लोभ से होती है। इससे व्रत दूषित होता है और उसका असली उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। अणुव्रतों को निर्मल बनाए रखने के लिए अन्य सहायक व्रतों का पालन करना भी आवश्यक है । अतएव अणुव्रती साधक को उनकी ओर ध्यान देना चाहिए। शास्त्रों में उन्हें उत्तरव्रत या उत्तरगुण कहते हैं । वे भी दो भागों में विभक्त हैं-गुणव्रत और शिक्षाव्रत । तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त मिलकर सात होते हैं। पांच मुलद्रत (अणुव्रत) इनमें सम्मिलित कर दिये जाएँ तो उनकी संख्या बारह हो जाती है। ये ही श्रावक के बारह व्रत कहलाते हैं। अणुव्रतों का निर्दोष पालन करने के लिए श्रावक को अपने भ्रमण पर भी अंकुश लगाना चाहिए । जितना अधिक घूमना होगा, उतना ही अधिक हिंसा, झूठ और परिग्रह का विस्तार बढ़ेगा । गमनागमन का क्षेत्र बढ़ेगा तो कुशील, मोह-ममता और अदत्तग्रहण की संभावना बढ़ेगी । वस्तुओं का किया हुआ परिमाण भी अपना रूप बढ़ा लेगा। इस कारण व्रती गृहस्थ अपने गमनागमन की भी सीमा निर्धारित कर लेता है । तथ्य यह है कि पापों के संकोच करने का दृष्टिकोण बढ़ाया जाना चाहिए । इच्छा को बे-लगाम नहीं होने देना चाहिए । यदि इच्छा रेलगाम हो गई और उस पर काबू न किया गया तो सभी व्रत खतरे में पड़ जाएंगे । आनन्द श्रावक ने अपनी स्थिति के अनुसार क्षेत्र की सीमा बांध ली और अपरिमित इच्छाओं को परिमित कर लिया। इसके लिए उसने ऊर्ध्व दिशा, अघोदिशा और तिरछी दिशाओं में गमनागमन की सीमा रेखा भी निश्चित कर ली । इस प्रकार दिशाओं सम्बन्धी नियम दिग्नत कहलाता है । उसका स्वरूप इस प्रकार है - दिव्रत - विभिन्न दिशाओं में गमनागमन करने की मर्यादा को दिग्वत कहते हैं । एक केन्द्र से किसी दिशा की ओर जाने की दूरी इस व्रत के अनुसार निश्चित
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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