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________________ [५१] शुभ-अशुभ भगवान्.महावीर ने साधक की विविध स्थितियाँ बतला कर उसे ध्यान दिलाया कि संसार में विविध प्रकार के कर्म दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु वे सब मुख्य रूप से दो भेदों के अन्तर्गत हो जाते हैं (७) शुभ या पुण्य कर्म और (२) अशुभ या पाप कर्म ___ पुण्य कर्म और पाप कर्म का भेद यद्यपि उनके विपाक की विविधता के आधार पर किया गया है, किन्तु सहमता में उतरें तो प्रतीत होगा कि यह दोनों प्रकार भी कोई मौलिक नहीं है । इन दोनों का मूल कार्मणवर्गणा है जो पुद्गल की एक जाति है । कार्माणजातीय पुदगल अत्यन्त सूक्ष्म और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। जीव के मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति या ते शुभ होती है या अशुभा दोनों प्रकार की प्रवृत्ति से कर्मों का वन्ध होता है । शुभ योग की प्रवृत्ति से शुभ कर्मों का दन्ध होता और उसे पुण्यबन्ध कहते हैं । तथा अशुभ योग की प्रवृत्ति से अशुभ कर्मों का बन्ध होता है, जिसे पापबन्ध कहते हैं । पुण्यकर्म का फल जीव को इष्ट रूप में प्राप्त होता है और पापकर्म का फल अनिष्ट रूप में मिलता है, संसार में जितने भी इष्ट संयोग हैं, मनोरम फल हैं, अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है, वह सब पुण्य का परिणाम है और जितने भी अनिष्ट, अमनोज्ञ और अकाम्य फल हैं, वे सब पाप के परिपाक हैं । साधारणतया सामान्य संसारी जीव पुण्य को उपादेय और पाप को हेय समझते हैं और व्यावहारिक दृष्टि से यह ठीक भी है, किन्तु निश्चय दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों ही उपादेय नहीं है । शुद्ध अध्यात्म दृष्टि से दोनों प्रकार के कर्मों का अन्त होने पर ही सिद्धि, मुक्ति या शुद्ध स्वरूपोपलब्धि होती है । सिद्धि की प्राप्ति में दोनों प्रकार के कर्म बाधक हैं । मगर इस विषय की विशेष विचारणा यहां नहीं करनी है । आज तो पुण्य और पाप के . विषय में ही कतिपय विचार प्रस्तुत किये जाएंगे ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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