SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक आलोक 263 महात्मन् ! वह अब बुझने नहीं पाएगी । प्रभो ! आप करुणा और ज्ञान के सागर हैं। प्रकाश के पुंज हैं । मेरी हार्दिक कामना है कि जैसे आपकी संगति से मुझ अधम का उद्धार हुआ है उसी प्रकार जगत् के अन्य पतित प्राणियों का भी उद्धार हो ! आपने जैसे एक जीवन को पवित्र बनाया है, वैसे ही जन-जन के जीवन को पवित्र बनावें । योगिन् ! आप गंगा के निर्मल जल के समान निर्मल हैं । जन-जन के जीवन के लिए वरदान हैं । " रूपकोषा के हृदय में मुनि के प्रति अगाध सात्विक अनुराग और पवित्र श्रद्धाभाव है । भौतिक देह के प्रति संयोग-वियोग की भावना नहीं है । वह संकल्प करती है कि मुनि महाराज भले ही चले जाएं परन्तु उनका उपदेश, उनके द्वारा विखेरा हुआ पावन आलोक, मेरे हृदय से नहीं जाएगा । उसे मैं अपने जीवन के उत्थान का मूलमन्त्र बना कर सुरक्षित रखूंगी । संसार के जीवों को परिणति बड़ी विचित्र है । सबसे बड़ी विचित्रता तो यही है कि आत्मा स्वयं अनन्त ज्ञान-दर्शन और असीम सुख का निधान होकर भी अपने स्वरूप को भूल कर रंक बना हुआ है। जब वह अपने वास्तविक रूप को समझ कर उसमें रमण करने लगता है तो संसार के उत्तम से उत्तम पदार्थ भी उसे आनन्ददायक प्रतीत नहीं होते। उसे सारा विश्व एक निस्सार नाटक के समान भासित होने लगता है । रूपकोषा की अब यही मनोदशा थी । उसे धर्म-चिन्तामणि पाकर अन्य किसी भी वस्तु की कामना नहीं रह गई थी । इस प्रकार रूपकोषा मुनि को विदा देती है और अपने जीवन को विशुद्ध बनाने का आश्वासन देती है। मुनि चातुर्मास समाप्त कर गुरु के निकट लौट रहे हैं। जैसे महामुनीश्वर स्थूलभद्र विकार, विलास एवं वासना के विषैले वातावरण में भी अपने को विशुद्ध बनाए रख सके, उसी प्रकार हमें भी अपने जीवन को शुद्ध बनाना है । याद रखिए, आपने भी मुनिराजों के मुखारविन्द से महावीर की मंगल-देशना सुनी है । आप भी इसी प्रकार दृढ़ संकल्पी बनें और कैसे भी विरोधी वातावरण में रहकर भी अपनी धर्मभावना में अन्तर न आने दें। आज आपके जीवन में जो धर्मभाव उदित हुआ है व हो रहा है, वह स्थिर रहे और बढ़ता जाय, यही जीवन के अभ्युदय का राजमार्ग है ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy