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________________ 258 आध्यात्मिक आलोक इस प्रकार का सम्यग्ज्ञान जिन्हें प्राप्त है, उनका दृष्टिकोण सामान्य जनों के दृष्टिकोण से कुछ विलक्षण होता है । साधारण जन जहां वाह्य दृष्टिकोण रखते हैं, ज्ञानियों की दृष्टि आन्तरिक होती है । हानि-लाभ को आंकने और मापने के मापदण्ड भी उनके अलग होते हैं । साधारण लोग वस्तु का मूल्य स्वार्थ की कसौटी पर परखते हैं, ज्ञानी उसे अन्तरंग दृष्टि से अलिप्त भाव से देखते हैं। इसी कारण वे अपने आपको कर्म बन्ध के स्थान पर भी कर्म निर्जरा का अधिकारी बना लेते हैं। अज्ञानी के लिए जो आस्रव का निमित्त है, ज्ञानी के लिए वही निर्जरा का निमित्त बन जाता है। आचारांग में कहा है "जे आसवा ते परिसव्वा, जे परिसव्वा ते आसवा ।' संसारी प्राणी जहां हानि देखता है, ज्ञानी वहां लाभ अनुभव करता है । इस प्रकार ज्ञान दृष्टि वाले और बाह्य दृष्टि वाले में बहुत अन्तर है । वाह्य दृष्टि वाला भौतिक वस्तुओं में आसक्ति धारण करके मलिनता प्राप्त करता है, जबकि ज्ञानी निखालिस भाव से वस्तुस्वरूप को जानता है, अतएव मलिनता उसे स्पर्श नहीं कर पाती । बहत वार ज्ञानी और अज्ञानी की बाह्य चेष्टा एक-सी प्रतीत होती है, मगर उनके आन्तरिक परिणामों में आकाश-पाताल जितना अन्तर होता है। ज्ञानी जिस लोकोत्तर कला का अधिकारी है, वह अज्ञानी के भाग्य में कहां! ज्ञानी पुरुष का पौदगलिक पदार्थों के प्रति मोह नहीं होता, अतएव वह किसी भी पदार्य को अपना बनाने के लिए विचार ही नहीं करता और जो उसे अपना नहीं बनाना चाहता, वह उसका अपहरण तो कर ही कैसे सकता है । वह सोने और मिट्टी को समान दृष्टि से देखता है उसके लिए तृण और मणि समान हैं । इस प्रकार जिस साधक की दृष्टि अन्तर्मुखी हो जाती है, उसे पदार्थों का स्वरूप कुछ निराला ही नजर आने लगता है । वह आत्मा और परमात्मा को अपने में ही देखने लगता है । उसे अपने भीतर पारमात्मिक गुणों का अक्षय भण्डार दृष्टिगोचर होता है, जिसकी तुलना में जगत् के बहुमूल्य से बहुमूल्य पदार्थ भी तुच्छ और निस्सार लगते हैं । वह अपनी ही आत्मा में अनिर्वचनीय आनन्द का अपार सागर लहराता हुआ देखता है । उस आनन्द की तुलना में विषय-जनित आनन्द नगण्य और तुच्छ प्रतीत होता है। - इस प्रकार की अर्न्तदृष्टि प्रत्येक प्राणी में जागृत हो सकती है, मगर उसके जीवन में विद्यमान दोष उसे जागृत नहीं होने देते । अतएव यह आवश्यक है कि उन दोषों को समझने का प्रयत्न किया जाय । इसी दृष्टि से यहां उनका विवेचन
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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