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________________ आध्यात्मिक आलोक 245 आगम प्रतिपादित मार्ग पर चलता है तो उसके गार्हस्थिक कृत्यों में किसी प्रकार की कठिनाई भी नहीं आती और वह राजकीय दण्ड से भी सदा-सर्वदा बचा रह सकता है। वास्तव में जैन-शास्त्रों में प्रदर्शित श्रावक धर्म किसी भी काल के आदर्श प्रजाजनों का.एक सुन्दरतम आदर्श विधान है, जिसमें लौकिक और लोकोत्तर श्रेयस की असीम सम्भावनाएं निहित हैं । भूलना नहीं चाहिए कि जीवन एक अभिन्न-अविच्छेद्य इकाई है, जिसे धार्मिक और लौकिक अथवा परमार्थिक और व्यावहारिक खंडों में सर्वथा. विभक्त नहीं किया जा सकता । ज्ञानी का व्यवहार परमार्थ के प्रतिकूल नहीं होगा और परमार्थ भी व्यवहार का उच्छेदक नहीं है । अतएव साधक को, चाहे वह गृहत्यागी हो, या गृहस्थ हो अपने जीवन को अखंड तत्व मानकर ही इस प्रकार के जीवन के समस्त पहलुओं के उत्कर्ष में तत्पर रहना चाहिए । जैन आचार विधान का यही निचोड़ है। इसका आशय यह नहीं कि प्रजाजनों को निर्वीर्य होकर, राजकीय शासन के प्रत्येक आदेश को नेत्र बन्द करके शिरोधार्य ही कर लेना चाहिए । राज्य शासन की ओर से टिड्डीमार, चूहेमार या मच्छरमार जैसे धर्म विरुद्ध आन्दोलन या आदेश अगर प्रचलित किये जाएं अथवा कोई अनुचित कर-भार लादा जाय तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह या असहयोग करना व्रत भंग का कारण नहीं है । शर्त यही है कि शासन को सूचना देकर प्रकट रूप में ऐसा किया जा सकता है । इस प्रकार का राज्य विरुद्ध कृत्य अतिचार में सम्मिलित नहीं होगा क्योंकि वह छिपा कर नहीं किया जाता। इसके अतिरिक्त उसमें चौर्य की भावना नहीं वरन प्रजा के उचित अधिकार के संरक्षण की भावना होगी । इसी प्रकार अगर कोई शासक अथवा शासन हिंसा, शोषण, अत्याचार, अनीति या अधर्म को बढ़ावा देने वाला हो तो उसके विरुद्ध कार्यवाही करना एक नागरिक के नाते उसका कर्तव्य है । इसमें कोई धर्म वाधक नहीं हो सकता 1.तो यह कार्यवाही भी "विरुद्ध राज्यातिक्रम में सम्मिलित नहीं है। राज्य की व्यवस्था का जैसा बाह्य रूप है, वैसा ही उसका. दायित्व भी सीमित है । साधारण मनुष्य राज्य शासन से लाभालाभ की अपेक्षा रखते हैं । ऋषि-मुनि तो अन्तर के राज्य (मनोराज्य) से अथवा धर्मराज तीर्थकर के शासन से शासित होते हैं । उनकी साधना निराली होती है । वे धर्म शासन के विधान को मान्य करके चलने वाले एक देश को ही नहीं वरन् समस्त विश्व को प्रभावित करते हैं। इन्द्र-नरेन्द्र भी उनकी साधना एवं साधना प्रसूत अनिर्वचनीय अनाकुलता तथा अद्भुत शान्ति के लिए तरसते हैं । उनकी अद्भुत प्रभावोत्पादक साधना इन्द्रों को भी चकित कर देती है तो मानवों की तो बात ही क्या है ?
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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