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________________ 16 आध्यात्मिक आलोक इन्द्रियों से भी बंधा रहता है। यह दिल-दिमाग और इन्द्रिय किसी को हिलने तक नहीं देता । 'परि समन्तात् गृह्यते इति परिग्रहः' रूप व्युत्पत्ति को सार्थक करता है। माया के फेर में पड़ने से ही परिग्रह की भावना उदित होती है। आत्मस्वरूप के दर्शन में यह परिग्रह बाधक है। सरकार का सिपाही तो अपराधी के शरीर को बांधता है, किन्तु परिग्रह तो आत्मा को जकड़ लेता है। गगन-मण्डल स्थित ग्रह यदि साधारण ग्रह कहा जाये तो परिग्रह महाग्रह है। भौतिकवादी आस्था ही परिग्रह की जननी है, विश्व के अधिकांश लोग जिसके आज शिकार बने हुये हैं। इससे पिण्ड छुड़ाये बिना सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती। साधु लोग परिग्रह का पूर्ण त्याग करके अपना जीवन शान्तिमय चलाते हैं। किन्तु ऐसा करना हर एक के वश की बात नहीं है। साधारण मानव यदि परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सके, तो भी वह उसका संयमन कर सकता है। परिग्रह के मोह में फंसा हुआ व्यक्ति अफीमची के सदृश है और मोही प्राणियों के लिये धन अफीम के समान है। अफीम के सेवन से जैसे अफीमची में गर्मी स्फूर्ति बनी रहती है किन्तु अफीम शरीर की पुष्ट धातुओं को सोखकर उसे खोखला बना देती है, परिग्रह रूपी अफीम भी मनुष्य के आत्मिक विकास को न सिर्फ रोक देती है बल्कि उसे भीतर से तत्वहीन कर देती है। अतः हर हालत में इसकी मात्रा निश्चित कर लेने में ही बुद्धिमानी है।। परिग्रह का विस्तार ही आज संसार में विषमता और अशान्ति का कारण बना हुआ है। यदि मनुष्य आवश्यकता को सीमित कर अर्थ का परिमाण करले तो संघर्ष या अशान्ति भी बहुत सीमा तक कम हो जाये। आज जो अति श्रीमत्ता को रोकने के लिये शासन को जनहित के नाम पर जनजीवन में हस्तक्षेप करना पड़ रहा है, धार्मिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर यदि मानव आप ही परिग्रह की सीमा बांध ले तो बाह्य हस्तक्षेप की आवश्यकता ही नहीं रहेगी और मन की अशान्ति, हलचल और उद्विग्नतां भी मिट जायेगी। बहुधा देखा जाता है कि बड़े बड़े श्रीमंत लोग इन्कमटेक्स और सेल टेक्स के साधारण इन्सपेक्टरों के सामने भी झुक जाते हैं और उनकी खुशी के लिये कुछ उठा नहीं रखते। यदि सन्तों की सत् शिक्षा को ध्यान में रखकर चलें तो उन्हें झुकने या भय करने की कोई जरूरत नहीं रहेगी, तथा मन भी शान्त रहेगा। कारण भय और अशान्तियों का कारण परिग्रह का अति संचय ही है। साधक आनन्द ऐसे गृहस्थों में था जो परिग्रह को साधन मात्र ही समझता , रहा और कभी उसका गुलाम नहीं बना, अज्ञानी मनुष्य परिग्रह को जीवनोद्देश्य या .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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