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________________ । ४२ ] साधना के बाधक कारण साधक को अपने आचरण के द्वारा भीतर और बाहर दोनों रूपों से साधना को संभालना पड़ता है। भीतरी साधना काम-क्रोधादि से सम्बन्धित है तथा वचन और काया का साधन यह बाहा रूप है । मानसिक आचार यह भीतर का साधन है । मन में कौन कैसा विचार रख रहा है, यह किसी और को पता नहीं चलता किन्तु कोई वाणी से गलत बोले तो पता चल जाता है । मन का आचार सूक्ष्म है । अतः आचार्यों ने सोचा कि पहले दीखने वाले चोर को पकड़ा जाय तो भीतर के सूक्ष्म को पकड़ने में सुविधा होगी । मुखिया जब पकड़ में आ जाता है तब उसका गिरोह पकड़ाये बिना नहीं रहता। वाणी और शरीर के दोषों को काबू कर लेने पर मानसिक दोष धीरे-धीरे नियंत्रण में आ सकते हैं । मन आखिर वाणी और शरीर के माध्यम से ही तो दौड़ लगाता है । यदि काया को वश में कर लेंगे तो मानसिक पाप स्वयं कम हो . जावेंगे। कभी किसी के मन में गलत इरादा आया, किन्तु व्यवहार में वाणी से झूठ नहीं बोलने का संकल्प होने के कारण उच्चारण नहीं किया, व्रत में पक्का रहा तो वह मानसिक तरंग धीरे-धीरे विलीन हो जाएगी । इसीलिए बाहर के आंगरों का नियंत्रण पहले करने की आवश्यकता बतलाई है। आनन्द को अपना जीवन सुधारना है, अतएव वह पहले बाह्य सुधार करता है और फिर धीरे-धीरे मानसिक संयम बढ़ाता है। विश्वास और श्रद्धा को स्थिर रखने के लिए दो बातें कही गई हैं 9) शंका से बचना (२) कांक्षा-मिथ्या दर्शन या भौतिक इच्छा से दूर रहना, क्योंकि इन दोनों के होते हुए साधक श्रद्धा-विश्वास पर दृढ़ नहीं हो सकेगा 1 ) तीसरा दोष विचिकित्सा-विद्वत जुगुप्सा है । साधना के मार्ग में लगकर यदि दृढ़ विश्वास नहीं तो सफलता नहीं मिलती श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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