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________________ आध्यात्मिक आलोक 209 भगवान महावीर ने व्रत की निर्मलता के लिए श्रमणोपासक आनन्द को बताया कि जो जीव अजीव, बन्ध, मोक्ष तथा पाप-पुण्य का जानकार है तथा श्रमणों की उपासना करता है, वह श्रमणोपासक है । उपासक का दृढ़ विश्वास होता है कि सुख-दुःख अपने कर्मानुसार प्राप्त होते हैं । बिना पुण्य के न तो कोई सुख दे सकता है और न बिना अशुभ कर्म के कोई दुःख लाद सकता है। देवों से घिरा हुआ भी ब्रह्मदत्त जीवनान्त होने पर सातवें नरक में गया । पाप का उदय होने पर कोई भी देव उसको नरक से नहीं बचा सका । क्योंकि मनुष्य को अपने पुण्य पाप का फल स्वयं भोगना पड़ता है । राम-लक्ष्मण और सीता के साथ पुण्योदय थे अतएव वनवास के कष्ट भोगकर भी वे सुख के भागी बन गए किन्त रावण का पाप का उदय था अतः सहस्रों रक्षक और राजभण्डार के होते हुए भी उसे दुःख सागर में गोता खाना पड़ा । गम्भीर प्रकृति का मानव सुख में अतिहर्षित और दुःख में गमगीन नहीं होता । कठिन समय में दुःख की स्थिति में, मन को अविचल रखने वाला ही गम्भीर कहलाता है। ज्ञानवान मनुष्य आर्त स्थिति में अपनी मनःस्थिति को भगवच्चरणों की ओर मोड़ लेता है । वह मन में सोचता है कि आर्तभाव बढ़ाकर मन को भारी क्यों बनाया जाय ? भगवान ने जो कुछ नियत भाव देखे हैं, उसमें कोई कमी आने वाली नहीं। ज्ञानियों ने कहा है-'राई घटे न तिल बढ़े, रह-रे जीव निशंक ।" वर्षों तक भी यदि रोते रहे तो गए हुए बन्धु, बांधव, पति, पिता, पुत्र और खोया हुआ धन कोई नहीं पा सकता और न इस प्रकार रोने से उस मृत आत्मा को किसी प्रकार की शान्ति ही मिल सकती है । यदि उस मृत आत्मा की प्रिय साधना में उसके परिजन बैठे हों तो मृतात्मा को शान्ति मिलेगी एवं स्वयं का भी कल्याण होगा । बहुत से अज्ञानी लोग शोक प्रसंग पर नहीं रोने वाले की निन्दा करते हैं ऐसा करना अज्ञानता मूलक एवं पापवर्द्धक है, समझदार व्यक्ति को रूदनकर नये पाप का बोझ नहीं बांधना चाहिए । शास्त्र कहता है कि रुलाने वाला पाप बन्ध का भागी बनता है और समझाकर सदन छुड़ाने वाला धर्म का निमित्त बनता है। . चक्रवर्तियों में आठवां स्वयंभू चक्रवर्ती हुआ है । भरत क्षेत्र का सम्पूर्ण राज्य पाकर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ | उसने अपना बड़प्पन दिखाने को सातवां खंड लेने का निश्चय किया । छः खण्डमय भरत खंड के सम्पूर्ण राज्य से अधिक एक चक्रवर्ती का क्षेत्र नहीं होता । "कोई भी चक्री सात खण्ड का स्वामी नहीं बना, अतः यह असंभव काम है," राज पुरुषों द्वारा इस प्रकार निवेदन करने पर भी उसने किसी की बात नहीं मानी और कहा
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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