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________________ आध्यात्मिक आलोक 179 परित्याग अगर संभव न हो, तो अनावश्यक अपध्यान का त्याग तो उसे करना ही चाहिए । अनर्थ में मनुष्य अपध्यान का तांता लगाए रहता है । चोट खाया हुआ सांप जैसे बदला लेने को आतुर रहता है उसी प्रकार मानव प्रति हिंसा की भावना में चक्कर काटते रहता है, यह अज्ञानता है । अज्ञानी भूल जाता है कि प्रति हिंसा से हिंसा घटती नहीं, पर बढ़ती है। जैसे साधक को अपध्यान से बचना नितान्त आवश्यक है उसी प्रकार प्रमाद से बचना भी जरूरी है । अपध्यान से प्रमाद की सीमा विस्तृत है । बड़े मच्छ के मुख में अनेक छोटी मछलियां प्रवेश पाती रहती हैं और उसकी आँख पर बैठा तंदुल । यह सब तमाशा देखता है । वह अपध्यान के वश में होकर सोचता है कि इसके मुख में अनेक मछलियां आती और लौट जाती हैं । यह मच्छ बड़ा मूर्ख है । मेरा मुख इतना बड़ा हो तो एक को भी नहीं लौटने दूं । इसी प्रकार मानव भी सोचता है और वाणी तथा मन से दुर्भाव करते रहता है । इस प्रकार के हवाई किलों से बेमतलब मन काला होता है। इन हवाई कल्पनाओं से मनुष्य तीव्र अशुभ भावनाओं में बह जाता है, फिर उसकी सीमा नहीं रह पाती । अतः यह अनर्थ दण्ड है । आनन्द ने भगवान महावीर के चरणों में रह कर साधना की पण्डिताई सीख ली, यद्यपि उसमें अध्ययन की बड़ी पण्डिताई नहीं थी । फिर भी पाप पर नियन्त्रण करने से वह पण्डित कहलाया, कहा भी है-“यस्तु क्रियावान, पुरुषः स विद्वान् ।" वररुचि में अध्ययन की पण्डिताई थी किन्तु साधना की पण्डिताई नहीं होने से वह महामन्त्री शकटार के प्रति प्रतिहिंसा की बात सोचने लगा । दूसरों की आँख से काम करने वाले सम्राट नन्द ने शकटार को दण्ड देने का सोच लिया । शकटार ने भी कुटुम्ब को सर्वनाश से बचा लेना उचित समझा । क्यों कि एक जीवन-नाश से अनेकों का जीवन रक्षण श्रेयस्कर है । नित्य कर्म से निवृत्त होकर शकटार अपने पुत्र श्रीयक के साथ प्रातःकाल राजदरबार में पहुँचे । उन्होंने दिल से गम को भुला दिया, क्योंकि गम करने से मनुष्य अपने को गंवा देता है, अतः शकटार प्रसन्न मुख दिखाई पड़ता था । शकटार को देखते ही सम्राट नन्द ने उसकी ओर से अपना मुख फेर लिया । श्रीयक अपने प्राण-प्रिय पिता पर खड़ग चलाने को कड़ा हृदय नहीं कर पा रहा था, किन्तु शकटार ने वंश की भलाई के लिए श्रीयक को अपने कर्तव्य पालन का अवसर नहीं चूकने को कहा, अतएव विवश होकर उसने भी दुःखित हृदय से महामन्त्री पर खड्ग चला दिया । इस रोमांचकारी दृश्य से सभा में हाहाकार मच गया और सभा मंडप में रक्त की धारा बह चली । राज सभा की स्थिति स्वप्नवत् हो गई । सारी सभा में सन्नाटा छा गया ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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