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________________ 156 आध्यात्मिक आलोक सचमुच में शास्त्र सिन्धु को आचार्य ने बिन्दु में भर दिया है, यही बिन्दु विस्तार पाकर सिन्धु हो जाता है । इस श्लोक से बिन्दु में सिन्धु भरने का चमत्कार दिखाया गया है कि इन्द्रियों को वश में नहीं रखना आपत्ति का मार्ग और उनको वश में रखना सम्पदा का मार्ग है । इन दोनों में से जो इष्ट हो उस पर चलो। ___ वासनाओं के कारण मनुष्य पाप करता है और परिणामतः संताप पाता है...' अतः संताप घटाने के लिए मनुष्य को अपनी आवश्यकताएं घटानी चाहिए । शरीरं की आवश्यकताएं तो कुछ सीमित हैं, पर मानस की आवश्यकताएं बहुत विस्तृत हैं । उस अनन्त आकाश से भी अधिक विस्तृत कहें, तो कुछ अत्युक्ति नहीं होगी। प्रतिक्षण आवश्यकता की तरंगों से मानस-सिन्धु-शुब्ध और आन्दोलित होता रहता है। एक के बाद दूसरी लहरें उठ-उठकर मानस सागर को हलचल में डालती रहती हैं । इस तरह मानव-जीवन अशान्त और दुःखित हो उठता है। श्रद्धा का निवास दिल में होता है, दिमाग में नहीं, मन हमेशा कुछ न कुछ घड़ा घड़ी करता है । यदि मनुष्य विवेकशील हो, तो वह मस्तिष्क का गलत उपयोग नहीं होने देगा । वस्तुतः दिल और दिमाग दोनों का साहचर्य एवं समन्वय होनाः चाहिए, किसी का दिमाग बड़ा हो, किन्तु दिल यदि छोटा है तो वह शान्ति से कुल, ..जाति देश और संसार में सहिष्णुता एवं समरसता नहीं ला सकेगा । विस्तृत दिमागवाला बड़ा विज्ञानी, इतिहासविज्ञ, वक्ता, राजनीतिज्ञ एवं लेखक हो सकता है, किन्तु दयालु अथवा सहिष्णु नहीं हो सकता । बड़ा दिमाग मनुष्य की शान्ति में सहायक नहीं होता । दिल यदि बड़ा बनता है तो दिमाग के सदुपयोग का कारण हो सकता: है । इसलिए भारतीय संस्कृति ने हृदय को विशाल रखने का सदा लक्ष्य रखा है. यदि मनुष्य का दिल विकसित हो, तो वह विचारों या मस्तिष्क में इतना नहीं बंधता कि दूसरों का अहित कर डाले।। आज का मानव यदि पहचान ले कि दुःख का कारण क्या है और तदनुकूल कार्य करे, तो भौतिक और आध्यात्मिक स्थिति ठीक बन सकती है। चित्त वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने से शान्ति मिलती है। तभी तो कहा है... : यही है महावीर .. सन्देश- 1 . सादा रहन सहन भोजन हो, सादी भूषा, वेश-यही है .. विश्व प्रेम जागृत कर उर में करो कर्म निःशेष यही है। जीवन को यदि आनन्द के उपभोग योग्य बनाना है, तो मनुष्य को जीवन : से निरंकुशता हटा लेनी होगी। मनुष्य और पशु में. यही. अन्तर है कि एक का जीवन जहां संयमित वहां दूसरे का निरंकुश. । राज़ समाज और धर्म के नियम मानव - ६ "..
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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