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आध्यात्मिक आलोक ..
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धनी व्यक्तियों पर यह दायित्व है कि वे उसकी योग्य सहायता करें । दान यदि दान के रूप में, सहायता के रूप में दिया जाता हो तो ठीक है, किन्तु देने में दृष्टिकोण दूसरा होता है । अज्ञान या मिथ्या भावना से दिया गया दान, पाप बढ़ने का कारण हो सकता है । माता-पिता की मृत्यु के बाद लोग मृत्यु-भोज करते और समझते हैं। कि इससे बुड्ढे की गति हो जायेगी, यह समझना ठीक नहीं । ब्राह्मण-भोज में धर्म समझना भी मिथ्या है । काम-क्रोध या ईर्ष्यावश होकर देना, तामस दान है, व्यवहार में जिसमें सहयोग प्राप्त होता हो, उन्हें देना राजस दान है। ये दोनों दान, दान के फल पाने में सहायक नहीं होते यह निश्चित है।
आडम्बर और वाहवाही में हजारों फूंकने की अपेक्षा समाज में सतशिक्षा का प्रसार, दीन दुःखियों की अपेक्षित सहायता तथा समाज-हित के अन्यान्य कार्य, जिनसे समाज सबल और पुष्ट बनता हो, धन लगाना श्रेयस्कर है । नैतिक धार्मिक शिक्षा की वृद्धि से पितृऋण और समाज ऋण दोनों से मुक्त हो सकते हैं । बुद्धिशील समाज के वृद्धों को ऐसी कुरीतियों और परम्पराओं को यथाशीघ्र समाप्त करना चाहिए, जिनसे समाज के धन और समय का अपव्यय होता तथा निष्कारण पाप माथे चढ़ता है। कीचड़ लगा कर धोने की अपेक्षा तो कीचड़ न लगाना ही अच्छा है । ऐसे ही पाप कर्म करने के बाद धर्मादा देना उसकी अपेक्षा पहले ही पापों से दूर रहना । अधिक अच्छा है।
कई लोग यह तर्क उपस्थित करते हैं कि प्याऊ, सदावर्त, धर्मशाला और अन-क्षेत्र आदि कैसे चलेंगे, यदि अर्थोपार्जन न किया जाय? इस प्रकार तर्क उपस्थित करने वालों को मन में भले ही संतोष हो, पर आत्मा को संतोष नहीं होगा ।
जैसे कोई नहाने जा रहा था। रास्ते में ठंडा कीचड़ देखकर वह उसका लेप लगाने लगा । दूसरे लोगों को यह देखकर हंसी आयी, तो उसने हंसने वालों से कहा-भाई। हंसते क्यों हो? नहाना तो है ही, उस समय इस कीचड़ को भी धो लूंगा । इस पर लोगों ने कहा-लगाकर घोओगे तो पहले लगाते ही क्यों हो ? उसी : प्रकार पाप का कीचड़ लगाकर उसे बाद में दान या तप से धोना, सराहनीय बुद्धि का । नमूना नहीं कहा जा सकता । एक कवि ने ठीक ही कहा है
"माता-पिता के जीते जी. सेवा भी कुछ ना बन पड़ी। जब मर गए तो श्राद्ध या तर्पण किया तो क्या हुआ । जगदीश गुण गाया नहीं,. गायक हुआ तो क्या हुआ । पितु-मातु मन भाया नहीं, लायक हुआ तो क्या हुआ.।।