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आध्यात्मिक आलोक घूमता रहे पर उसका अन्त नहीं पाता । इसी तरह इच्छाओं का चक्र भी कभी युग . युगान्तर में पूरा नहीं होगा । इसीलिए शास्त्र में कहा है कि
"इच्छाहु आगास समा अणं तिया," अर्थात् इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। भोगों के द्वारा इच्छा की तृप्ति चाहना, यह तो ईधनों या घृत से आग बुझाने जैसा है । गीताकार श्रीकृष्ण ने भी ठीक ही कहा है
न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाम्यति। . हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवमिव व एवमिववद्धत ।।
अर्थात् इच्छा कभी काम के उपभोग से शान्त नहीं होती । इस प्रकार तो यह घृताहुति से आग की तरह और बढ़ती है । इस बढ़ते हुए वेग को रोकने के दो उपाय हैं । एक दमन करना और दूसरा, शमन करना । साम्प्रदायिक उपद्रवों के समय पुलिस के शक्ति बल से उपद्रव रोक दिए जाते हैं । इससे तात्कालिक का दमन तो हो जाता है पर रोग की स्थायी दवा नहीं होती और समय पाकर वह दबा हुआ जोश फिर अचानक भड़क उठता है । इसके लिए शमन की अपेक्षा है । कारण, दमन का काम बलात् रोकना है और शमन का मूल से निकाल देना है भीतर की आग को अच्छी तरह बुझा देना है ।
राजनीति दमन प्रधान है, वहां शमन की ओर लक्ष्य नहीं रहता यही कारण है कि वर्षों तक कारावास का कठोर दण्ड भोग कर भी अपराधी अपराध कर्मों से अलग नहीं हो पाते । सजा काट कर निकलते ही वे फिर वैसे ही उत्पात चालू कर देते हैं । सरकार की ओर से कड़ी कारवाई होने पर भी, आंखों में धूल झोंक कर अपराधी निकल जाते हैं। नगरों में गली-गली पर पुलिस चौकियों का प्रबन्ध होते हुए भी छुरे भोंक दिए जाते हैं और बड़े-बड़े नगरों में कारों तक की चोरी हो जाती है । यह शमन की कमी का ही फल है। गांवों में संस्कारवश दुत्तियों का शमन होता है, अतः वहां चोरी एवं गुण्डागर्दी के केस कम होते हैं।
शमन में वृत्तियां जड़से सुधारी जाती हैं-रोग के बजाय उसके कारणों पर ध्यान दिया जाता है । इसलिए उसका असर स्थायी होता है । सूई आदि से रोग को दबा दिया जाय पर रोग का कारण मिटाकर शमन नहीं किया जाय, तब तक रोगी को स्थायी शान्ति नहीं मिलती । धर्म नीति शमन पर अधिक विश्वास करती है। फिर भी तत्काल की आवश्यकता से कहीं दमन भी अपेक्षित रहता है । प्रबल विकारों को रोकने के लिए कुछ उपवास कराए जाते हैं, कलह करने वाले को प्रायश्चित्त देकर