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________________ [२४ ] जीवनोत्कर्ष का मूल साधना के मार्ग में प्रगतिशील वही बन सकता है, जिसमें संकल्प की दृढ़ता हो । जिस साधक में श्रद्धा और धैर्य हो, वह अपने सुपथ से विचलित नहीं होता । संसार की भौतिक सामग्गियां उसे आकर्षित नहीं करतीं, बल्कि वे भौतिक सामग्रियां उसकी गुलाम होकर रहती हैं । यद्यपि शरीर चलाने के लिये साधक को भी कुछ भौतिक सामग्रियों की आवश्यकता होती है, किन्तु जहां साधारण मनुष्य का जीवन, उनके हाथ बिका होता है, वहां साधक उनके ऊपर प्रभुत्व करता है। एक भूतों के अधीन है, तो दूसरा उनको अपनी अधीन रखता है। इसी विशेषता के कारण साधक जीवन की महिमा है। आनन्द ने भी सभी भौतिक पदार्थों को लात नहीं मार दी; किन्तु उनके उपभोग, परिभोग में नियन्त्रण किया । वस्त्र धारण के पश्चात् उसने अलंकरण का परिमाण किया । प्रायः स्नान के बाद मनुष्य वस्त्र धारण कर ललाट पर चन्दन आदि का विलेपन करते हैं । आनन्द ने अनेक विध विलेपनों का त्याग करके केवल अगुरु, कुंकुम और चन्दन आदि मिश्रित एक विलेपन रखा जो मंगल सूचक था और श्रृंगार और विलास का सूचक नहीं था । यह आठवां विलेपन विधि का परिमाण है। आनन्द का लक्ष्य हर काम में हिंसा घटाने का था । इसलिये भोग-सामग्री और शोभा के लिये वह अल्पारंभी एवं आरोग्यदायी वस्तु का ही चयन करता । विलेपन के पश्चात् माल्य-धारण विधि की बात आती है। भोगी लोगइन्द्रिय पोषण के लिये विविध प्रकार के फूलों का उपयोग करते हैं और उनके हार तथा गजरे बनाकर धारण करते हैं। और तो क्या ? शरीर को अत्यधिक आराम देने के लिये वे फूलों पर लेटते और उसकी खुश्बू में मस्त होकर अपने को कृतकृत्य मानते हैं । पर, आनन्द उन खिले फूलों के जीवन से बेकार खिलवाड़ कर उन्हें
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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