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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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पुत्रके उत्पन्न होते ही सब ओर आनन्द छा गया। भक्ति से प्ररेहुए चारों निकायोंके देवोंने मेरु पर्वत पर ले जाकर उसका अभिषेक किया। वहांसे लौटकर इन्द्रने महाराज सुदर्शनके घर पर आनन्द नामका नाटक किया तथा अनेक प्रकारके उत्सव किये । उस समय राज भवनमें जो भीड़ जमा थी उससे ऐसा मालूम होता था कि मानो तीनों लोकोंके समस्त प्राणी वहां पर एकत्रित हो गये हो । तीर्थङ्कर पुत्रका अरनाथ नाम रक्खा गया। देव लोग जन्मकल्याणकका उत्सव समाप्त कर अपने अपने स्थानों पर चले गये।
राज भवनमें भगवान अरनाथका बड़े प्यारसे पालन होने लगा। वे अपनी बाल चेष्टाओंसे माता पिता बन्धु बान्धव आदिको बहुत ही हर्षित करते थे। भाता मित्रसेनकी आशाओंके साथ वे निरन्तर बढ़ने लगे। जब उन्होंने युवावस्थामें पदार्पण किया तब उनकी शोभा बहुत ही विचित्र हो गई थी। उनकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर उन्हें कामदेव कहने लगे थे। ,
श्रीकुन्थुनाथ तीर्थङ्करके बाद एक हजार करोड़ वर्ष कम चौथाई पत्य बीत जानेपर भगवान अरनाथ हुयेथे। उनकी आयुभी इसी अन्तरालमें शामिल है । जिनराज अरनाथकी उत्कृष्ट आयु चौरासी हजार वर्षकी थी। तीस धनुष ऊंचा शरीर था। शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान समृण-स्निग्ध पीली थी। उनके शरीरको रोग शोक दुःख वगैरह तो छू भी नहीं गये थे। योग्य अवस्था देखकर महाराज सुदर्शनने उनका कुलीन कन्याओंके साथ विवाह कर दिया और कुछ समय बाद उन्हें युवराज पद पर नियुक्त कर दिया था। इस तरह कुमारकालके इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और इतने ही वर्ष बाद उनकी आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ। भगवान् अरनाथ चक्ररत्नको आगेकर असंख्य सेनाओंके साथ दिग्विजयके लिये निकले और कुछ वर्षों में ही समस्त भरतक्षेत्रमें अपना अधिपत्य स्थापितकर हस्तिनापुर वापिस लौट आये । दिग्विजयी सम्राट अरनाथका नगर प्रवेशोत्सव बड़ी सज धजसे मनाया गया था। उन्होंने चक्रवर्ती होकर इकीस हजार वर्ष तक राज्य किया और इस तरह उनकी आयुका तीन चौथाई हिस्सा गृहस्थ अवस्थामें ही बीत गया। एक दिन उन्हें शरद् ऋतुके बादलोंका नष्ट होना देखकर वैराग्य उत्पन्न