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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण #
भगवान कुन्थुनाथ ररक्ष कुन्थु प्रमुखान् न्हि जीवान्
दया प्रतानेन, दयालयो यः ।
सकुन्थुनाथ दयया सनाथः
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करोतु मां शीघ्र महो सनाथन् ॥
- लेखक
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"दयाके आलप स्वरूप जिन कुन्थुनाथने दधाके समूह से कुन्थु आदि जीवोंकी रक्षा की थी वे दयायुक्त भगवान् कुन्थुनाथ मुझ अनाथको शीघ्र ही सनाथ करें ।"
(१) पूर्वभव वर्णन
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्रमें सीता नदीके दाहिने किनारेपर एक वत्स देश है । उसकी राजधानी सुसीमा नगरी थी । उसमें किसी समय सिंहरथ नामका राजा राज्य करता था । वह बहुत ही बुद्धिमान और पराक्रमी राजा था। उसने अपने बाहुबलसे समस्त शत्रु राजाओंका पराजय कर उन्हें देशसे निकाल दिया था । उसका नाम सुनकर शत्रु राजा थर-थर कांपने लगते थे ।
एक दिन राजा सिंहरथ मकान की छनपर बैठा हुआ था कि इतनेमें आकाश से उलका ( रेखाकार तेज ) पात हुआ । उसे देखकर वह सोचने लगा कि 'संसार के सब पदार्थ इसी तरह अस्थिर हैं। मैं अपनी भूलसे उन्हें . स्थिर समझ कर उनमें आसक्त हो रहा हूँ । यह मोह बड़ा प्रबल पवन है जिसके प्रचण्ड वेसे बड़े-बड़े भूघर भी विचलित हो जाते हैं । यह बड़ा सघन निमिर है जिसमें दूरदर्शी आंखें भी काम नहीं कर सकतीं । और यह वह प्रचण्ड दावानल है जिसकी ऊमासे वैराग्य लताएं झुलस जाती हैं । इस मोहके कारण ही प्राणी चारों गतियोंमें तरह तरहके दुःख भोगते हैं । अब मुझे इस मोहको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।" ऐसा सोचकर उसने पुत्रके लिये राज्य देकर पति वृषभ मुनिराजके पास दीक्षा ले ली और कठिन तपस्याओंसे अपने शरीरको सुखा दिया । उक्त मुनिराजके पास रहकर उसने ग्यारह अङ्गों