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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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काम
ध्यानके द्वारा चार घातिया कर्माका क्षय कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनंत सुख और अनन्त चतुष्टय प्रास किये। देवोंने आकर कैवल्य प्राप्तिका उत्सव किया। और कुवेरने समवसरणकी रचना की। समवसरणके मध्यमें विराजमान होकर भगवान् शांतिनाथ अपना मौन भङ्ग किया-दिव्यध्वनिके द्वारा सप्त, तत्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य आदिका व्याख्यान किया जिसे सुन समस्त भव्य जीव प्रसन्न हुए। अनेकोंने जिन दीक्षा धारणकी उनके समवसरणमें चक्रायुधको आदि लेकर छत्तीस गणधर थे, आठ सौ श्रुतकेवली थे इकतालीस हजार आठ मौ शिक्षक थे, तीन हजार अवधिज्ञानी थे चार हजार केवलज्ञानी थे छह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक थे, चार हजार मनः पर्यय ज्ञानी थे, दो हजार चार सौ यादी शास्त्रार्थ करने वाले थे। इस तरह सब मिलकर बासठ हजार मुनिराज थे हरिषेणा आदि साठ हजार तीन सौ आर्यिकायें थी। सुर कीति आदि दो लाख श्रावक अर्हद्दासी आदि चार लाख श्राविकाय, असंख्यात देव देवियां और संख्यात तिर्यंच थे। इन सबके साथ उन्होंने अनेक देशों में बिहार किया और जैन धर्मका खूब प्रचार किया।
जब उनकी आयु एक महीनेकी रह गई तब वे सम्मेद शिखरपर आये और वहां अनेक मुनिराजोंके साथ योग निरोधकर प्रतिमा योगसे विराजमान हो गये। वहीं पर उन्होंने सूक्ष्म क्रिया प्रति पाति और व्युपरत क्रिया निवृत्तिनामक शुक्ल ध्यानके द्वारा अवशिष्ट घातिया कर्मोका संहार कर ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन शामके समय भरणी नक्षत्रमें मोक्षलाभ किया। देवोंने आकर उनके निर्वाण क्षेत्रकी पूजा की। उसी समय यथाक्रमसे चक्रायुध आदि नौ हजार मुनिराज मुक्त हुए। भगवान शान्तिनाथ,तीर्थकर,कामदेव और चक्रवर्ती पदवियोंके धारक थे।
मत्तगयन्द छन्द शान्ति जनेश जयो जगतेश हरे अघ ताप निशेषकी नाई। सेवत पाय सुरासुर आय न मैं सिर नाय मही तल ताई ।। मौलि विर्षे मणि नील दिपै प्रभु के चरणों झलक बहु झांई। म सुधन पाप-सरोज सुगन्धि किधों चलके अति पङ्कति आई॥
-भूधरदास