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________________ १४ * चौवीस तीर्थकर पुराण* - कारण है । मैं इसे स्पष्ट रूपसे आप लोगोंके सामने कहना चाहती हूं पर लजा मुझे कहने नहीं देती। अब मैं देखती हूँ कि लजासे काम नहीं चलेगा इसलिये क्षमा करना, मैं आज लजाका परदा फाड़कर अपनी मनोवृत्ति प्रकट करती हूँ । सुनती हो न ? धातकीखण्ड द्वीपकी पूर्व दिशामें जो मेरु पर्वत है, उससे पश्चिमकी ओर विदेह क्षेत्र में एक गान्धिल नामका देश है उसके पाटलिगांवमें एक नागदत्त नामका वणिक रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सुदति था । इस वणिक दम्पती के नन्द, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन नामके पांच पुत्र तथा मदन कान्ता और श्रीकान्ता नामकी दो पुत्रियां थी। उन दो पुत्रियोंमेंसे मैं छोटी पुत्री थी। लोग मुझको निर्नामिका भी कहा करते थे। किसी समय वहां के अम्बर तिलक पर्वतपर पिहितास्रव नामके एक मुनिराज आये। मैंने जाकर उनसे विनयपूर्वक पूछा कि भगवन् ! मैं इस दरिद्र कुलमें पैदा क्यों हुई हूँ। तब मुनिराज बोले इसी गान्धिल देशके पलाल पर्वत गांवमें एक देवल नामका मनुष्य रहता था उसकी स्त्रीका नाम मुमति था। तुम पहले इसीके घर धनश्री नामसे प्रसिद्ध लड़की हुई थीं। एक दिन तुम्हारे बगीचेमें कोई समाधिगुप्त नामके मुनीश्वर आये थे सो तुमने उनके सामने मरे हुए कुत्तेका कलेवर डाल दिया जिससे वे कुछ क्रुद्ध हो गये। तव डरकर तुमने उनसे क्षमा मांगीं । उस क्षमा से तुम्हारे उस पापमें कुछ न्यूनता हो गयी थी जिससे तुम इस दरिद्र कुलमें उत्पन्न हो सकी हो नहीं तो मुनियोंके तिरस्कारसे नरक गतिमें जाना पड़ता। यह कह चुकनेके बाद मुनिराज पिहिताश्रवने मुझे जिनेन्द्र गुण सम्पति और श्रुतज्ञान नामके व्रत दिये जिनका मैंने यथाशक्ति पालन किया। उन ब्रतोंके प्रभावसे मैं मरकर ऐशान स्वर्गमें ललितांग देवकी अंगना हुई थी। वहां मेरा नाम स्वयंप्रभा था। हम दोनों एक दूसरेको बहुत अधिक चाहते थे। पर मेरे दुर्भाग्यसे ललितांग देवकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्युसे मुझे बहुत ही दुःख हुआ पर करती ही क्या ? जिनेन्द्र प्रतिमाओंकी पूजा करते २ मैंने अपनी अवशेष आयु पूर्ण की और वहांसे चयकर यह श्रीमती हुई हूँ।
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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