SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __* चौबीमतीर्थकर पुराण * ma - - - - - - - था। उसने जवान होकर भी अपना विवाह नहीं करवाया था । वह हमेंशा शास्त्रोंके अध्ययन तथा किसी नई चीजकी खोजमें लगा रहता था। अब स्वयं प्रभा जिसे कि ललिताङ्ग देव छोड़कर चला आया था, का उपाख्यान सुनिये। प्राणनाथ ललितांग देवके मरनेपर स्वयंप्रभाको यहुत खेद हुआ, जिससे वह तरह तरहके विलाप करने लगी। यह देखकर एक दृढ़ वर्मा जोकि ललितांगका घनिष्ट मित्र था, नामके देवने उसे खूब समझाया और अच्छे अच्छे कार्योका उपदेश दिया। उसके उपदेशसे स्वयं प्रभाने पति विरहसे उत्पन्न हुए दुःखको कुछ शान्त किया और अपने शेष जीवनके छह माह जिन पूजन, चैत्य वन्दन आदि शुभ कर्मों में व्यतीत किये । मृत्युके समय सौमनस वनमें शोभित किसी चैत्य वृक्षके नीचे पंच परमेष्ठीका ध्यान करती हुई स्वयं प्रभाने देवी पर्यायसे छुट्टी पाई। "जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें कोई पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है। बजदन्त राजा उसका पालन करते थे । उसकी स्त्रीका नाम लक्ष्मीमती था" स्वयंप्रभा देवी स्वर्गसे चयकर इन्हीं राज दम्पतीके श्रीमती नामकी पुत्री हुई। श्रीमतीकी सुन्दरता देखकर लोग कहा करते थे कि इसे ब्रह्माने चन्द्रमाकी कलाओंसे बनाया है। किसी समय श्रीमती छतके ऊपर रत्नोंके पलंगपर पड़ी सो रही थी। उसी समय वहांके आकाशमें जय २ शब्द करते हुए बहुतसे देव निकले। वे देव, पुण्डरीकिणी पुरीके किसी उद्यानमें विराजमान यशोधर गुरुके केवल ज्ञान महोत्सवमें शामिल होनेके लिये जा रहे थे। उन देवोंके आगे हजारों बाजे बजते जाते थे जिनका गम्भीर शब्द सब ओर फैल रहा था। देवोंकी जयजयकार और बाजोंकी उच्च ध्वनिसे श्रीमतीकी नींद खुल गई। नींद खुलते ही उसकी दृष्टि देवोंपर पड़ी जिससे उसे उसी समय अपने पूर्व भवोंका स्मरण हो साया। अब ललितांग देव उसकी आंखोंके सामने झूलने लगा और स्वर्ग लोककी सब अनुभूत क्रियायें उसकी नज़रमें आने लगीं। वह बार बार ललितांग देवका स्मरण कर विलाप करने लगी और विलाप करती करती मूर्छित भी हो गयी । सखियोंने अनेक शीतल उपचारोंसे सचेत कर अब उस.. से मूछित होनेका कारण पूछा तब वह चुपचाप रह गयी और चारों ओर
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy