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________________ चौबीस तीथकर पुगण + Paraanimuan -namase राजन् ! आपके वाया शतवल भी चिरकालतक राज्य-सुग्व भोगनेके बाद आपके पिना अनेबलके लि राज्य देकर धर्मभ्यान करने लगे थे और आयुके जन्नमें समाधि पर्वक शरीर छोड़कर माहेन्द्र स्वर्गमें देव हुए थे। आपको भी ख्याल होगा जब हम दोनों मेरू पर्वनपर नन्दन वन में खेल रहे थे, तब देव गरीरधारी आपके घायाने कहा था कि "जैन धर्मको कभी नहीं भूलना, यही सन पुखोंका कारन है।" । AULARAMAITAMAmendmAIRAM उसी तरह आरके पिता अनिवलके वाया महस्रबल भी गतवलके लिये राज्य देकर नग्न दिगम्बर हो गये थे और ठिन तपस्याओस आत्मशुद्धि कर शुक्ल भ्यानके प्रतापसे परमधाम मोक्ष स्थानको प्राप्त हुए थे। ये कथाएं प्रायः सभी लोगाके परिचित और अनुभूत,थीं इसलिये स्वयं बुद्ध मन्त्रीकी ओर फिलीको अविश्वास नहीं हुआ। राजा और प्रजाने स्वयं बुद्धता ग्बूच सत्कार किया । महामति आदि तीन मन्त्रियोंके उपदेश से जो कुछ विमान फैल गया था वह स्वयं बुद्ध के उपदेशमे दूर हो गया था। इस तरह राजा महालकी वर्षगांठका जलशा हर्ष ध्वनिके साथ समाप्त हुआ। एक दिन व बुद्ध मन्त्री अकृतिम चैत्यालयोंकी नन्दना करने के लिये रोक पर्वतपर गये और वहांपर समस्त चेत्यालयोंके दर्शनकर अपने आपको लफल भय मानत दुर सौमनस वनमें बैठे ही थे कि इतने उन्हें पूर्व विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत कच्छ देशके अनिष्ट नामक नगरसे आये हुए दो मुनिराज दिखाई पड़े। उन बुनि गोरे एकका नाम अदित्यप्रति ओर दूसरेका अरिंजय था। स्वयं बुद्ध खड़े होकर दोनों मुनिराजोंका स्वागत किया और विनय पूर्वक प्रणामकर तत्वका स्वरूप पूछा।। जय मुनिराज.तत्वोंका स्वरूप कह चुके तब मन्त्री उनसे पूछा-'हे नाथ ! हमारी अलका नगरो में सब विद्याधर का अधिगति जो महावल नामका राजा राज्य करता है वह भव्य है या अभव्य ? सान्त्रीका प्रश्न सुनकर आदित्य गति;मुनिराजने ३ ही कि हे सचिव ! राजा महायल सत्य है क्योंकि भव्य ही तुम्हारे वचनों में विश्वास कर सकता है। Lutam imalIAN HTTATR EATMon
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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