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प्रहपत हो, देखो द्वितिय सूत्र कृतांग के प्रथम शूर संघ के प्रथम अध्ययन के दूसरे उसे शारमी गाथा में कहा है। धम्म पन्नवणां जामा, तंतु संकति मूढगा । प्रारम्भानि न संकंति, अविश्रत्ता अकोवित्रा।
टीका-शंकनीया शंकनीय विपर्यासमाह (धम्म पन्नवणोत्यादि) धर्मस्यं क्षात्यादि दशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना प्ररूपणा (तंत्विति) तामेव शंकन्ते असधर्म प्ररूपणोयमित्येव मध्यवस्यति ये पुनः पायोपादान भूताः समारंभास्ता ना शंकते (किमिति) यतोऽव्यक्ता मुग्धासदसद्विवेकविकलाः तथा अकोविदा, अपण्डिताः सच्छात्राववोधरहिताः इति ॥ अर्थात् क्षान्त्यादि दशविधि धर्म प्ररूपणा है उसे प्ररूपते तो शंकाय याने शरमाते हैं और श्रारंभ में धर्म प्ररूपते शंकाय नहीं, ऐसे अव्यक्त मुग्ध पण्डित है, इसीलिए कहता है, हे देवानुप्रियो ! जो श्री अरिहन्त भगवन्तों ने अहिंसा धर्म कहा है सोही कहना उचित है अन्यथा सवन्सि वर्जनीय है श्री सुयगडांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथमाध्यन में खुलासा कहा है।
तत्थ खलु भगवन्ता छन्झीवनिकाय हे उ पन्नतात. जहा पुढवीकाए जाव तसकाए से जहा णामए मम अस्सायं दंडेणवा अट्ठीणवा मुट्ठीणवा लेलूणवा कवालेणवा आउट्टिज माणस्सवा हम्ममागस्सवा तमिझ माणस्सवा ताडिझ माणस्स वा परियाविज्झमाणस्सवा किलाविज्झमाणस्सवा उद्दविज्झमाणस्सवा जावलो मुख्खमाणमायमवि हिंसाकारगं दुख्खं भयं पडिसं वे मि इचेवं जा;