SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेकिन जिनआक्षा बाहर के कार्य में धर्म कदापि मत समझो। श्रधा शुद्ध रखने से ही सम्यक्त्वी कहलाओगे, परन्तु भाक्षां बाहर का कार्य में धर्म समझने से सम्यक्त्वी कभी नहीं कहा लाओगे । जैनी नाम कहा के एकेन्द्री जीवों के मारने में धर्म ऐसा कहना भला कहां तक अच्छा होगा? धर्मार्थ हिंसा का दोप नहीं ऐसी प्ररूपना करके अहिन्सा धर्म जोतीर्थङ्करों का कहाहुवा है उसे कलङ्कित मत करो, महानुभावो, देखो देव गुरु धर्म यह तीनों अमूल्य रत हैं. इनकी पहिचान करो अगर अपने बुजुर्ग. कुसंग से कुगुरुउपासक थे तो तुम उनकी देखां देख कुगुरुत्रों हिंसाधर्मियों की उपासना मत करो, जब तुम्हारी आत्मोन्नति होगी। परभव में दुर्गति न पायें अगर ऐसा विचार है तो अस. ली नकली की पहिचान ज़रूर करो, ऊपर की चमक दमक ही. देखकर मत भ्रमों, सिर्फ कांटा घांट बांधकर जहोरी नाम कहलाने से ही जोहरी नहीं होसकता, वैसे ही जैनी नाम धराने से ही जैनी नहीं होसकता है। दृढता रक्खो वाह्य शुची से पवित्रात्मा कभी नहीं होगी, जो यह अपनी आत्मा अनादिकाल से हिं. सा आदि पंच पाश्रव द्वार सेने सेवाने और भला जानने से म. लीन होरही है वो आत्मा इन्ही पंचाश्रव द्वार सेने सेवाने और. भला जानने से कभी भी निर्मल नहीं होगी । इसही लिए कहना है प्रियवरो! शुद्ध पञ्च महावत पालने वाले मुनिराजों को मलीन कहकर पापों के पुजसे आत्मा भारी मत करो। और जिन भाषित नय निक्षेप का भावार्थ यथार्थ समझो, निश्चय और व्यवहार दोनों नयों से मात्र पदार्थों का द्रव्य गुण पर्याय को यथार्थ समझो। एकान्त निश्चय या एकान्तं व्यवहार नय कोही मत ताणो । एक पक्षी बने रहोगे तो समषित का लाभ नहीं पाओगे, याद रक्खोभी बीतरागदेव मरूपित धर्म स्याद्वादमयी है, परन्तु: विषमवाद नहीं है, एकान्त निश्चयनयी हों के व्यवहार नय कों मत उथापी, छदमस्थ का सोम्पयहार ही शुद्ध है, इसलिए कहना है कि कुहेतु देके जिनभाषित हिन्सा धर्म को विध्वंस म.. तकरो। अगर साये जैनी होतो अहिंसा धर्म प्ररूपते हुए क्यों ला. जते हो और पृथिवी. भादि पांच स्थाघर की हिन्सा में धर्म क्यों
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy