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(३८) पल्योपम सागरू, उतसर्पणी ने अवशर्पणी जाणजी। जीव पुद्गल प्रावर्तन स्थापिया, इम काल द्रव्यने पिछाणजी ॥ हिव ॥ ३८॥ इण विधि गयो काल नींकल्यो, इम हिज श्रागमियों कालजी । वर्तमान समों छै तिणसमें, येक समय श्रद्धाकालजी ॥ हिव ॥ ३९ ॥ते समय बत अढी दीपमें, तिो इतनी दूर जांणजी । ऊंचो वतै जोतिष चक्र लगै, नवसय योजन प्रमाणजी ॥ हिव. ॥ ४० ॥ नींचो व सहस्र योजन लगे, महा विदेहरी दोय विजय मांयजी । ल्यांमें वतै अनन्ता द्रवां ऊपर, तिणसं अनन्ती कही पर्यायजी ॥ हिव ॥ ४१ ॥ येक येक द्रव्यरै ऊपरोयेकरसमय गिययों तहायजी। तिण येक स. मां ने अनन्ता कह्या, कालतणी पर्यायरे न्यायंजी॥ हिव ॥४२॥ वलि कहि कहिने कितनी कहूं; बर्त. मान समय सदायेकजी। तिण येकण. अनन्ता कह्या, तिणनें. अोलखो प्राण विवेकजी ॥ हिव ॥ ४३॥ .
. . ॥ भावार्थ ॥ - काल पदार्थ के अनन्त द्रव्य हैं सो हुये होय और होसी जिस का विस्तार कहते हैं, गत काल में मनम्ता समया हुना, धर्तमान