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तोके ( लोगं के०) चौद रज्वात्मक लोक एटले पट जीवनिकायरूप लोक तेहने दुःखरूप समुद्रमांहे पड्यो देखीने (खयनेहि के० ) खेदज्ञ एटले वीजा जीवोनां दुक्खोना जाणनार एवा श्री तीर्थकर भगवते ( पवेदेति के०) पूर्वात जीव दया लक्षण धर्म भाख्यो ( एवं के० ) ( प्रकारे जाणीने (सेभिरकृविरते के०) ते साधू निवां (प्राणातिवायता के०) प्राणातिपात एटलं हिंसा थकी तेमज मृषावाद थकी तथा अदत्तादान थकी तथा मैथुन एटले कुशील थकी (जावविरतेपरिग्गाहातो के०) यावत परिग्रह थकी विरति करती थकी जेवा प्राचारे प्रवर्तेत आचार कहेछे । णादंतपरकालणेशंदंतपरकालेममा के० ) दंत पक्षालने करी दंत धोचे नहीं एतावता जावजीव सुद्धि दांतण न करे (गोशंजणं के०) जावजीच सुधी सौभाग्यने अर्थ श्रांखमां अंजन नाखे नहीं (णोवमनं के०) वमन विरेचनादिक क्रिया न करे (णोधूवणे के०) शरीर वस्त्रादिक धूपन न करे ( णोतंपरियाविएमझा के० ) कासादि रोगने मटाडवा माटे धूम पान पण न करे तभिर् एटलावाना पोते आचार नहीं ॥ ४६॥
अर्थात् सर्व प्राणी भूत जांच सत्वों को न मारना यह अहिंसा धर्म ध्रुव नित्य और सास्चता है अतीत काल में जो अरिहन्त भगवन्त हुए वर्तमान में जो महाविदह क्षेत्र में है और अनागत फाल में जो अरिहन्त होवेंगे उन्होंने यही कहा यावत् यही प्ररूपा तथा यही कहेंगे यावत् यही प्ररूपैग, तो अब मोक्षाभिलाषियों को विचारणा चाहिए कि किसीप्रकार भी जीव हिंसा में धर्म नहीं होसला है। तव कोई कहै धर्म क वास्ते हिंसा करनेसे दोप नहीं होता है, एले कहै उन्होंको विचारणा चाहिए कि तीर्थ करोन धर्म ही अहिंसा में कहा है तो फिर हिंसा से धर्म कैसे होगा, लेकिन कुयुक्ति खगाके अनार्य लोग धर्म हेतु जीव मारने में दोष नहीं ऐसी प्ररूपना करते हैं यह श्री प्राचारांग सूत्र में खु. लासा कहा है, तथा अर्थ वा धर्म के लिए पृथ्को फायादि जीवों को मारते हैं उन्हें मन्द बुद्धि दसमां अंग प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है।