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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार। इस ग्रंथके दो भाग हैं-एक जीवकांड दूसरा कर्मकांड । जीवकाण्डमें जीवकी अनेक अशुद्ध अवस्थाओंका या भावोंका वर्णन है। कर्मकाण्डमें कर्मोंकी अनेक अवस्थाओंका वर्णन है। कर्मकाण्डकी संक्षिप्त हिंदी टीका श्रीयुत पं. मनोहरलालजी शास्त्री द्वारा सम्पादित इसी ग्रंथमालाके द्वारा पहले प्रकाशित होचुकी है । जीवकांडकी संक्षिप्त हिंदी टीका अभीतक नहीं हुई थी। अत एव आज विद्वानों के समक्ष उसीके उपस्थित करनेका मेंने साहस किया है। . जिस समय श्रीयुत प्रातःस्मरणीय न्यायवाचस्पति स्याद्वादवारिधि वादिगजकेसरी गुरुवर्य पं. गोपालदासजीके चरणोमें मैं विद्याध्ययन करता था उसी समय गुरुकी आज्ञानुसार इसके लिखनेका मेंने प्रारम्भ किया था। यद्यपि इसके लिखनेमें प्रमाद या अज्ञानवश मुझसे कितनी ही अशुद्धियां रहगई होगी; तथापि सज्जन पाठकोंके गुणग्राही खभावपर दृष्टि देनेसे इस विषयमें मुझे अपने उपहासका बिलकुल भय नहीं होता । ग्रंथके पूर्ण करने में मैं सर्वथा असमर्थ था तथापि किसीभी तरह जो मैं इसको पूर्ण कर सका हूं उसका कारण केवल गुरुप्रसाद है । अत एव इस कृतज्ञताके निदर्शनार्थ गुरुके चरणोंका चिरंतन चितवन करना ही श्रेय है। प्राचीन टीकाएं समुद्रसमान गम्भीर हैं-सहसा उनका कोई अवगाहन नहीं कर सकता। जो अवगाहन नहीं कर सकते उनकेलिये कुल्याके समान इस क्षुद्र टीकाका निर्माण किया है। आशा है कि इसके अभ्याससे प्राचीन सिद्धांत तितीर्घओंको अवश्य कुछ सरलता होगी । पाठकोंसे यह निवेदन है कि यदि इस कृतिमें कुछ सार भाग मालुम हो तो उसे मेरे गुरुका समझ हृदयंगत करै । और यदि कुछ निःसारता या विपरीतता मालुम पड़े तो उसे मेरी कृति समझें, और मेरी अज्ञानतापर क्षमाप्रदान करें । यह टीका ख. श्रीमान् रायचंद्रजीद्वारा स्थापित ‘परमश्रुतप्रभावकमंडल'की तरफसे प्रकाशित की गई है । अत एव उक्त मंडल तथा उसके ऑनरेरी व्यवस्थापक शा. रेवाशंकर जगजीवनदासजीका साधुवादन करता हूं। इस तुच्छ कृतिको पढ़नेके पूर्व "गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः। हसंति दुर्जनास्तत्र समाद. धति सज्जनाः" इस श्लोकके अर्थको दृष्टिपथ करनेके लिये विद्वानोंसे प्रार्थना करनेवाला७-७-१९१६ ई. । खूबचंद जैन २ रा पांजरापोळ-वंबई नं. ४ । वेरनी ( एटा ) निवासी For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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