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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
षट्शतयोजनकृतिहितजगत्प्रतरं योनिमतीनां परिमाणम् । पूर्णोनाः पंचाक्षाः तिर्यगपर्याप्त परिसंख्या ॥ १५५ ॥
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अर्थ - छह सौ योजन के वर्गका जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना ही योनिमती तिचोंका प्रमाण है । और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें से पर्याप्त तिर्यंचोंका प्रमाण घटानेपर जो शेष रहे उतना अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका प्रमाण है ।
मनुष्योंका प्रमाण बतानेके लिये तीन गाथाओं को कहते हैं । सेढीसूई अंगुलआदिमतदियपदभाजिदेगूणा । सामण्णमणुसरासी पंचमकदिघणसमा पुण्णा ॥ १५६ ॥
श्रेणी सूच्यङ्गुलादिमतृतीयपभाजितैकोना । सामान्यमनुष्यराशिः पञ्चमकृतिघनसमाः पूर्णाः ॥ १५६ ॥
अर्थ-सूच्यंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूलका जगच्छ्रेणीमें भाग देनेसे जो शेष रहे उसमें एक और घटानेपर जो शेष रहे उतना सामान्य मनुष्य राशिका प्रमाण है । इसमेंसे द्विरूपवर्गधारामें उत्पन्न पांच मे वर्ग ( वादाल ) के घनप्रमाण पर्याप्त मनुष्यों का प्रमाण है ।
पर्याप्त मनुष्यों की संख्याको स्पष्टरूपसे बताते हैं ।
तललीन मधुगविमलंधूमसिलागाविचोरभयमेरू ।
तटहरिखझसा होंति हु माणुसपज्जत्तसंखंका ॥ १५७ ॥ तललीनमधुगविमलं धूमसिलागाविचोरभयमेरू ।
तटहरिखझसा भवन्ति हि मानुषपर्याप्त संख्याङ्काः ॥ १५७ ॥
अर्थ —तकारसे लेकर सकारपर्यन्त जितने अक्षर इसगाथामें बताये हैं, उतने ही अङ्कप्रमाण पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या है । भावार्थ - इस गाथामें तकारादि अक्षरोंसे अङ्कका ग्रहण करना चाहिये; परन्तु किस अक्षर से किस अङ्कका ग्रहण करना चाहिये इसके लिये "कटपय पुरस्स्थवर्णैर्नव नवपंचाष्टकल्पितैः क्रमशः । खरजनशून्यं संख्यामात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् | यह गाथा उपयोगी है । अर्थात् कसे लेकर आगेके झ तकके नव अक्षरोंसे क्रमसे एक दो आदि नव अङ्क समझने चाहिये । इस ही प्रकार टसे लेकर नव अक्षरोंसे नव अङ्क, और पसे लेकर पांच अक्षरोंसे पांच अङ्क, तथा यसे लेकर आठ अक्षरोंसे आठ अङ्क, एवं सोलह खर और ञ न इनसे शून्य (०) समझना चाहिये । किन्तु मात्रा और ऊपरका अक्षर, इससे कोई भी अक ग्रहण नहीं करना चाहिये । इस नियमके और "अङ्कोंकी विपरीत गति होती है" इस नियम के अनुसार इस गाथा में कहे हुए अक्षरोंसे पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ निकलती है
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