________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
गोम्मटसार। अर्थ-अपर्याप्त नामकर्मके उदय होनेसे जो जीव अपने २ योग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण न करके अन्तर्मुहूर्तकाल में ही मरणको प्राप्त होजाय उसको लब्ध्य पर्याप्तक कहते हैं। भावार्थ-जिन जीवोंका अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे अपने २ योग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण न करके अन्तर्मुहूर्तमें ही मरण होजाय उनको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । इस गाथामें जो तु शब्द पडा है उससे इस प्रकारके जीवोंका अन्तर्मुहूर्त में ही मरण होता है, और दूसरे चकारसे इन जीवोंकी जघन्य और उत्कृष्ट दोंनो ही प्रकारकी स्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र है, ऐसा समझना चाहिये । यह अन्तर्मुहूर्त एक श्वासके अठारवें भागप्रमाण है । इस प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तक जीव एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सबहीमें पाये जाते हैं। ___ यदि एक जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें लब्ध्यपर्याप्तक अवस्थामें ज्यादेसे ज्यादे भवोंको धारण करै तो कितने करसकता है ? यह बताते है ।
तिण्णिसया छत्तीसा छावट्टिसहस्सगाणि मरणाणि । अन्तोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ॥ १२२ ॥ त्रीणि शतानि षत्रिंशत् षट्षष्टिसहस्रकाणि मरणानि ।
अन्तर्मुहूर्तकाले तावन्तश्चैव क्षुद्रभवाः ॥ १२२ ॥ अर्थ-एक अन्तर्मुहूर्तमें एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव छयासठ हजार तीनसौ छत्तीस मरण और इतने ही भवोंको (जन्म) भी धारण कर सकता है। भावार्थ-एक लब्ध्यपयप्तिक जीव यदि निरन्तर भवोंको धारण करै तो ६६३३६ जन्म और इतने ही मरणोंको धारण कर सकता है । अधिक नहीं करसकता । उक्त भवोंमें एकेन्द्रियादिकमेंसे किसके कितने भवोंको धारण करता है यह बताते हैं।
सीदी सट्टी तालं वियले चउवीस होति पंचक्खे । छावटिं च सहस्सा सयं च वत्तीसमेयक्खे ॥ १२३ ॥
अशीतिः षष्टिः चत्वारिंशद्विकले चतुर्विशतिर्भवन्ति पंचाक्षे ।
षट्षष्ठिश्च सहस्राणि शतं च द्वात्रिंशमेकाक्षे ॥ १२३ ॥ अर्थ-विकलेन्द्रियोंमें द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ८० भव, त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ६०, चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ४० और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके २४, तथा एकेन्द्रियोंके ६६१३२ भवोंको धारण कर सकता है, अधिकको नहीं । एकेन्द्रियोंकी संख्याको स्पष्ट करते हैं ।
पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य एकेके बार खं छक्कं ॥ १२४ ॥
For Private And Personal