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गोम्मटसार। समयमें होनेवाले परिणामोंका प्रमाण निकलता है। इसमें एक घाटि पदप्रमाण चय जोड़नेसे अंतसमयसंबन्धी परिणामोंका प्रमाण ४५६+७४१६=५६८ होता है । इन अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा क्या कार्य होता है ? यह दो गाथाओंद्वारा स्पष्ट करते हैं ।
तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं । मोहस्सपुत्वकरणा खबणुबसमणुजया भणिया ॥ ५४॥ ताशपरिणामस्थितजीवा हि जिनैर्गलिततिमिरैः।
मोहस्यापूर्वकरणाः क्षपणोपशमनोद्यता भणिताः ॥ ५४ ॥ 'अर्थ-अज्ञान अन्धकारसे सर्वथा रहित जिनेन्द्रदेवने कहा है कि उक्त परिणामोंको धारण करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय कर्मकी शेष प्रकृतियोंका क्षपण अथवा उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं ।
णिद्दापयले णटे सदि आऊ उबसमंति उबसमया। खवयं दुके खबया णियमेण खवंति मोहं तु ॥ ५५ ॥ निद्राप्रचले नष्टे सति आयुषि उपशमयन्ति उपशमकाः ।
क्षपकं ढौकमानाः क्षपका नियमेन क्षपयन्ति मोहं तु ॥ ५५ ॥ अर्थ-जिनके निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति हो चुकी है, तथा जिनका आयुकर्म अभी विद्यमान है, ऐसे उपशमश्रेणिका आरोहण करनेवाले जीव शेषमोहनीयका उपशमन करते हैं, और जो क्षपकश्रेणिका आरोहण करनेवाले हैं वे नियमसे मोहनीयका क्षपण करते हैं । भावार्थ-जिसके अपूर्वकरणके छह भागोंमेंसे प्रथम भागमें निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होगई है, और जिसका आयुकर्म विद्यमान है ( जो मरणके सम्मुख नहीं है ), अर्थात् जो श्रेणिको चढ़नेवाला है, क्योंकि श्रेणिसे उतरते समय यहांपर मरणकी सम्भावना है । इसप्रकारसे उपशमश्रेणिको चढ़नेवाले जीवके अपूर्वकरण परिणामों के निमित्तसे मोहनीयका उपशम और क्षपकश्रेणिवाले के क्षय होता है । नवमें गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं ।
एकलि कालसमये संठाणादीहिं जह णिवट्ठति ।
ण णिवटुंति तहावि य परिणामेहिं मिहो जेहिं ॥ ५६ ॥ १ इस विशेषणसे उनके कहे हुए वचनमें प्रामाण्य दिखलाया है, क्योंकि यह नियम है कि जो परिपूर्ण ज्ञानका धारक है वह मिथ्या भाषण नहीं करता । २ इन दोनों कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति यहीं पर होती है। इस कथनसे अष्टमगुणस्थानका प्रथम भाग लेना चाहिये; क्योंकि उपशम या क्षयका प्रारम्भ यहींसे होजाता है। ३ मरणके समयसे पूर्वसमयमें होनेवाले गुणस्थानको भी उपचारसे मरणका गुणस्थान कहते हैं। ४ इस गाथामें 'तु' शब्द पड़ा है इससे सूचित होता है कि क्षपकश्रेणिमें मरण नहीं होता।
गो.४
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