SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १९ को उद्दिष्ट कहते हैं । उसके निकालने का क्रम यह है कि किसीने पूछा कि राष्ट्रकथालापी मायी घ्राणेन्द्रियवशंगतः निद्रालुः स्नेहवान् यह प्रमादका भङ्ग कितनेमा है ? तो एक(१) संख्या को रखकर उसको प्रमादके प्रमाणसे गुणा करना चाहिये और जो अनंकित हो उसको उसमें से घटादेना चाहिये । जैसे १ एकका स्थापनकर उसको इन्द्रियों के प्रमाण पांचसे गुणा करनेपर पांच हुए उसमें से अनंकित चक्षुः श्रोत्र दो हैं; क्योंकि भङ्ग पूछनेमें घ्राणेन्द्रिय का ग्रहण किया है, इसलिये दोको घटाया तो शेष रहे तीन, उनको कषायके प्रमाण चारसे गुणा करने पर बारह होते हैं, उनमें अनंकित एक लोभकषाय है इसलिये एक घटादिया तो शेष रहे ग्यारह, उनको विकथाओंके प्रमाण चारसे गुणनेपर चवालीस होते हैं, उसमेंसे एक अवनिपालकथाको घटा दिया तो शेष रहे तेतालीस इसलिये उक्त भङ्ग तेतालीसमां हुआ। प्रथम प्रस्तारकी अपेक्षा जो अक्षपरिवर्तन वताया था उसके आश्रयसे नष्ट और उद्दिष्ट के गूढयन्त्रको दिखाते हैं। इगिवितिचपणखपणदशपण्णरसं खवीसतालसट्टी य । संठविय पमदठाणे गट्ठदिदं च जाण तिहाणे ॥ ४३ ॥ एकद्वित्रिचतुःपंचखपञ्चदशपञ्चदश खविंशञ्चत्वारिंशत् षष्ठीश्च । संस्थाप्य प्रमादस्थाने नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ॥ ४३ ॥ अर्थ-तीन प्रमादस्थानोंमें क्रमसे प्रथम पांच इन्द्रियों के स्थानपर एक दो तीन चार पांचको क्रमसे स्थापन करना । चार कषायोंके स्थानपर शून्य पांच दश पन्द्रह स्थापन करना । तथा विकथाओंके स्थानपर क्रमसे शून्य वीस चालीस साठ स्थापन करना । ऐसा करनेसे नष्ट उद्दिष्ट अच्छीतरह समझमें आसकते हैं। क्योंकि जो भङ्ग विवक्षित हो उसके स्थानोंपर रक्खी हुई संख्याको परस्पर जोड़नेसे, यह कितनेवां भङ्ग है अथवा इस संख्यावाले भङ्गमें कौन २ साप्रमाद आता है यह समझमें आसकता है । दूसरे प्रस्तारकी अपेक्षा गूढयन्त्रको कहते हैं। इगिवितिचखचडवारं खसोलरागट्ठदालचउसहि । संठविय पमदठाणे णट्टदिद्रं च जाण तिहाणे ॥ ४४ ॥ एकद्वित्रिचतुःखचतुरष्टद्वादश खषोडशरांगाष्टचत्वारिंशचतुःषष्टिम् । संस्थाप्य प्रमादस्थाने नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ॥ ४४ ॥ अर्थ-दूसरे प्रस्तारकी अपेक्षा तीनों प्रमादस्थानोंमें क्रमसे प्रथम विकथाओं के स्थानपर १।२।३।४ स्थापन करना, और कषायोंके स्थानपर ०१४।८।१२ स्थापनकरना, और १-रागशब्दसे ३२ लिये जाते हैं। क्योंकि "कटपयपुरःस्थवर्णैः” इत्यादि नियमसूत्रके अनुसार गका अर्थ ३ और रका अर्थ २ होता है । और यह नियम है कि "अङ्कोंकी विपरीत गति होती है"। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy