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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गुणस्थानियोंका खरूप बताकर गुणस्थानातीत सिद्धोंका स्वरूप बताते हैं । सिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहारं उवजोगाणकमपउत्ती॥ ७३०॥ सिद्धानां सिद्धगतिः केवलज्ञानं च दर्शनं क्षायिकम् । सम्यक्त्वमनाहारमुपयोगानामक्रमप्रवृत्तिः ॥ ७३० ॥ अर्थ-सिद्ध जीवोंके सिद्धगति केवलज्ञान क्षायिकदर्शन क्षायिकसम्यक्त्व अनाहार और उपयोगकी अक्रम प्रवृत्ति होती है। भावार्थ-छद्मस्थ जीवोंके क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शनकी तरह सिद्धोंके क्षायिक ज्ञान दर्शनरूप उपयोगकी क्रमसे प्रवृत्ति नहीं होती; किन्तु युगपत् होती है । तथा सिद्धोंके आहार नहीं होता-वे अनाहार होते हैं। क्योंकि उनसे कर्मका और नोकर्मका सर्वथा सम्बन्ध ही छूटगया है । “णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो ओजमणोवि य कमसो आहारो छब्भिहो यो" ॥ १॥ इस गाथाके अनुसार नोकर्म और कर्म भी आहार ही हैं अतः सर्वथा अनाहार सिद्धोंके ही होता है ॥ गुणजीवठाणरहिया सण्णापजत्तिपाणपरिहीणा । सेसणवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होंति ॥ ७३१ ॥ गुणजीवस्थानरहिताः संज्ञापर्याप्तिप्राणपरिहीनाः।। शेषनवमार्गणोनाः सिद्धाः शुद्धाः सदा भवन्ति ॥ ७३१ ॥ अर्थ-सिद्ध परमेष्ठी, चौदह गुणस्थान चौदह जीवसमास चार संज्ञा छह पर्याप्ति दश प्राण इनसे रहित होते हैं । तथा इनके सिद्धगति ज्ञान दर्शन सम्यक्त्व और अनाहारको छोड़कर शेष नव मार्गणा नहीं पाई जाती । और ये सिद्ध सदा शुद्ध ही रहते हैं। क्योंकि मुक्तिप्राप्तिके वाद पुनः कर्मका बन्ध नहीं होता। अंतमें वीस भेदोंके जाननेके उपायको बताते हुए इसका फल दिखाते हैं। णिक्खेवे एयत्थे णयप्पमाणे णिरुत्तिअणियोगे। मग्गइ वीसं भेयं सो जाणइ अप्पसम्भावं ॥ ७३२ ॥ निक्षेपे एकार्थे नयप्रमाणे निरुक्त्यनुयोगयोः ।। मार्गयति विशं भेदं स जानाति आत्मसद्भावम् ॥ ७३२ ॥ अर्थ-जो भव्य उक्त गुणस्थानादिक वीस भेदोंको निक्षेप एकार्थ नय प्रमाण निरुक्ति अनयोग आदिके द्वारा जानलेता है वही आत्मसद्भावको समझता है । भावार्थजिनके द्वारा पदार्थों का समीचीन व्यवहार हो ऐसे उपायविशेषको निक्षेप कहते हैं । इसके चार भेद हैं, नाम स्थापना द्रव्य और भाव । इनकेद्वारा जीवादि समस्त पदार्थोंका समीचीन व्यवहार होता है । जैसे किसी अर्थ विशेषकी अपेक्षा न करके किसीकी जीव यह For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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