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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
गुणस्थानोंमें आलापोंको बताते हैं।
ओघे मिच्छदुगेवि य अयदपमत्ते सजोगिठाणम्मि । तिण्णेव य आलावा सेसेसिको हवे णियमा ॥ ७०७ ॥
ओघे मिथ्यात्वद्विऽके पि च अयतप्रमत्तयोः सयोगिस्थाने ।
त्रय एवचालापाः शेषेष्वेको भवेत् नियमात् ॥ ७०७ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व सासादन असंयत प्रमत्त सयोगकेवली इन गुणस्थानोंमें तीनों आलाप होते हैं । शेष गुणस्थानोंमें एक पर्याप्त ही आलाप होता है। इसी अर्थको स्पष्ट करते हैं।
सामण्णं पजत्तमपजत्तं चेदि तिण्णि आलावा । दुवियप्पमपजत्तं लद्धीणिवत्तगं चेदि ॥ ७०८॥ सामान्यः पर्याप्तः अपर्याप्तश्चेति त्रय आलापाः।
द्विविकल्पोऽपर्याप्तो लब्धिनिर्वृत्तिकश्चेति ॥ ७०८ ॥ अर्थ-आलापके तीन भेद हैं-सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त । अपर्याप्तके दो भेद हैं एक लब्ध्यपर्याप्त दूसरा निर्वृत्त्यपर्याप्त ।
दुविहं पि अपज्जत्तं ओघे मिच्छेव होदि णियमेण । सासणअयदपमत्ते णिवत्तिअपुण्णगो होदि ॥ ७०९ ॥ द्विविधोप्यपर्याप्त ओघे मिथ्यात्व एव भवति नियमेन ।
सासादनायतप्रमत्तेषु निर्वृत्त्यपूर्णको भवति ॥ ७०९ ॥ अर्थ-दोनों प्रकारके अपर्याप्त आलाप समस्त गुणस्थानोंमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होते हैं । सासादन असंयत प्रमत्त इनमें निर्वृत्त्यपर्याप्त आलाप होता है । भावार्थ-अपर्याप्तके जो दो भेद गिनाये हैं उनमेंसे प्रथम गुणस्थानमें दोनों और सासादन असंयत प्रमत्त इनमें एक निवृत्त्यपर्याप्त ही होता है; किन्तु सामान्य और पर्याप्त आलाप सर्वत्र होते हैं।
जोगं पडि जोगिजिणे होदि हु णियमा अपुण्णगत्तं तु । अवसेसणवट्ठाणे पजत्तालावगो एक्को ॥ ७१० ॥
योगं प्रति योगिजिने भवति हि नियमादपूर्णकत्वं तु ।
__ अवशेषनवस्थाने पर्याप्तालापक एकः ॥ ७१०॥ अर्थ-सयोगकेवलियोंमें योगकी ( समुद्धातकी ) अपेक्षासे नियमसे अपर्याप्तकता होती है। इसलिये उक्त पांच गुणस्थानोंमें तीन २ आलाए और शेष नव गुणस्थानोंमें एक पर्याप्त ही आलाप होता है ।
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