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गोम्मटसारः ।
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गुणस्थान एक दूसरा जीवसमास सात होते हैं । वे इस प्रकार हैं कि बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी इनसम्बन्धी अपर्याप्त और एक संज्ञीप - र्याप्त । मिश्रदर्शनका गुणस्थान एक तीसरा और जीवसमास भी संज्ञी पर्याप्त यह एक ही होता है । उपशमसम्यक्त्वके दो भेद हैं- एक प्रथमोपशम दूसरा द्वितीयोपशम । जो प्रतिपक्षी पांच या सात प्रकृतियोंके उपशमसे होता है उसको प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं | और जो सम्यग्दर्शन तीन दर्शनमोहनीयप्रकृतियोंके उपशमके साथ २ चार अनंतानुबंधी कषायोंके विसंयोजनसे उत्पन्न होता है उसको द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । इनमें से एक प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा वेदक सम्यक्त्व असंयत से लेकर अप्रमत्तपर्यन्त होता है । प्रथमोपशमसम्यक्त्व अवस्था में मरण नहीं होता। इसलिये जीवसमास एक संज्ञी - पर्याप्त ही होता है । और वेदकसम्यक्त्वमें संज्ञीपर्याप्त अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं । क्योंकि प्रथम नरक, भवनत्रिकको छोड़कर शेष देव, भोगभूमिज मनुष्य तथा तिर्यंचों में अपर्याप्त अवस्थामें भी वेदक सम्यक्त्व रहता है ।
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको कहते हैं ।
विदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहोत्ति । खइगं सम्मं च तहा सिद्धोत्ति जिणेहिं णिहिटुं ॥ ६९५ ॥
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमविरत सम्यगादिशांत मोहइति ।
क्षायिकं सम्यक्त्वं च तथा सिद्धइति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ६९५ ॥
अर्थ — द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान से लेकर उपशांत मोहपर्यन्त होता है । क्षायिक सम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थान से लेकर सिद्धपर्यन्त होता है । द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें संज्ञीपर्याप्त और देव अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं । क्षायिक सम्यक्त्वमें संज्ञी - पर्याप्त अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं । तथा यह सम्यक्त्व सिद्धोंके भी होता है; परन्तु वहां पर कोई भी जीवसमास नहीं होता । भावार्थ —– यहां पर चतुर्थ पंचम तथा षष्ठ गुणस्थानमें जो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व बताया है उसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सातमे गुणस्थानमें ही उत्पन्न होता है; परन्तु वहांसे श्रेणिका आरोहण करके जब ग्यारहमे गुणस्थानसे नीचे गिरता है तब छट्ठे पांचमे चौथे गुणस्थानमें भी आता है इस अपेक्षासे इन गुणस्थानों में भी द्वितीयोपशम सम्यक्त्व रहता है
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१ विशेषता इतनी है कि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसे च्युत होकर जो सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके संज्ञीपर्याप्त और देवअपर्याप्त ये दो ही जीवसमास होते हैं । २ अनंतानुबंधीका अप्रत्याख्याना - दिरूप परिणमन होना । ३ वेदकसम्यक्त्वका लक्षण पहले कह चुके हैं ।
गो. ३३
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