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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । जीवद्विकमुक्तार्थ जीवाः पुण्या हि सम्यक्त्वगुणसहिताः । व्रतसहिता अपि च पापास्तद्विपरीता भवन्तीति ॥ ६२१ ॥ अर्थ-जीव और अजीवका अर्थ पहले बताचुके हैं । जीवके भी दो भेद हैं, एक पुण्य और दूसरा पाप । जो सम्यक्त्वगुणसे या व्रतसे युक्त हैं उनको पुण्य जीव कहते हैं । और इससे जो विपरीत हैं उनको पाप जीव कहते हैं। गुणस्थानक्रमकी अपेक्षासे जीवराशिकी संख्या बताते हैं । मिच्छाइट्ठी पावा ताणता य सासणगुणावि । पल्लासंखेजदिमा अणअण्णदरुदयमिच्छगुणा ॥ ६२२ ॥ मिथ्यादृष्टयः पापा अनन्तानन्ताश्च सासनगुणा अपि । पल्यासंख्येया अनान्यतरोदयमिथ्यात्वगुणाः ॥ ६२२ ।। अर्थ-मिथ्यादृष्टि पाप जीव हैं । ये अनंतानंत हैं; क्योंकि द्वितीयादि तेरह गुणस्थानवाले जीवोंका प्रमाण घटानेसे अवशिष्ट समस्त संसारी जीवराशि मिथ्यादृष्टि ही है । तथा सासादन गुणस्थानवाले जीव पल्यके असंख्यातमे भाग हैं। और ये भी पाप जीव ही हैं। क्योंकि अनंतानुबंधी चार कषायोंमेंसे किसी एक कषायका इसके उदय होरहा है । इसलिये यह मिथ्यात्व गुणको प्राप्त है। भावार्थ-सासादन गुणस्थानवालेका पहले यह लक्षण कह आये हैं कि “किसी एक अनंतानुबंधी कषायके उदयसे जो सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वतसे तो गिरपड़ा है; किन्तु मिथ्यात्वरूप भूमिके सम्मुख है-अर्थात् अभीतक जिसने मिथ्यात्वभूमिको ग्रहण नहीं किया है, किन्तु एक समयसे लेकर छह आवलीतकके कालमें नियममे वह उस मिथ्यात्व भूमिको ग्रहण करलेगा ऐसे जीवको सासादनगुणस्थानवाला कहते हैं ।" अतः इस गुणस्थानवाले जीवोंको पुण्य जीव नहीं कह सकते; क्योंकि अनंतानुबंधी कषायके उदयसे इनका सम्यक्त्वगुण भी नष्ट हो चुका है और इनके किसी प्रकारका व्रत भी नहीं है । किन्तु नियमसे ये मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होंगे इसलिये इनको मिथ्यादृष्टि-पाप जीव ही कहते हैं । इन जीवोंकी संख्या पल्यके असंख्यातमे भाग है । और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी संख्या अनंतानंत है । मिच्छा सावयसासणमिस्साविरदा दुवारणंता य । पल्लासंखेजदिममसंखगुणं संखसंखगुणं ॥ ६२३ ॥ मिथ्याः श्रावकसासनमिश्राविरता द्विवारानन्ताश्च । पल्यासंख्येयमसंख्यगुणं संख्यासंख्यगुणम् ॥ ६२३ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि अनंतानंत हैं । श्रावक पल्यके असंख्यातमे भाग हैं । सासाद गुणस्थानवाले श्रावकोंसे असंख्यातगुणे हैं । मिश्र सासादनवालोंसे संख्यातगुणे हैं । अव्रतस For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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