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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसारः । २२७ होता है । एक रूक्ष परमाणुका दूसरी दो गुण अधिक रूक्ष परमाणुके साथ बन्ध होता है । एक विग्ध परमाणुका दूसरी दो गुण अधिक रूक्ष परमाणुके साथ भी बन्ध होता है । सम विषम दोनोंका बन्ध होता है; किन्तु जघन्यगुणवालेका बन्ध नहीं होता । भावार्थ - एक गुणवालेका तीनगुणवाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता । शेष स्निग्ध या रूक्ष दोनों जातिके परमाणुओं का समधारा या विषमधारामें दो गुण अधिक होनेपर बन्ध होता है । दो चार छह आठ दश इत्यादि जहां पर दोके ऊपर दो दो अंशोंकी अधिकता हो उसको समधारा कहते हैं । तीन पांच सात नौ ग्यारह इत्यादि जहां पर तीनके ऊपर दो दो अंशोंकी वृद्धि हो उसको विषमधारा कहते हैं । इन दोनों धाराओं में जघन्य गुणको छोड़कर दो गुण अधिकका ही बन्ध होता है औरका नहीं । 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir णिद्धिदरे समविसमा दोत्तिगआदी दुउत्तरा होंति । उभयेविय समविसमा सरिसिदरा होंति पत्तेयं ॥ ६१५ ॥ स्निग्धेतरयोः समविषमा द्वित्रिकादयः व्युत्तरा भवन्ति । उभयेऽपि च समविषमाः सदृशेतरे भवन्ति प्रत्येकम् ।। ६१५ ॥ 1 अर्थ - स्निग्ध और रूक्ष दोनोंमेंही दोगुणके ऊपर जहां दो २ की वृद्धि हो वहां समधारा होती है । और जहां तीन गुणके ऊपर दो २ की वृद्धि हो उसको विषमधारा कहते हैं । सो स्निग्ध और रूक्ष दोनोंमेंही दोनों ही धारा होती हैं । तथा प्रत्येक धारामें रूपी और अरूपी होते हैं । इस ही अर्थको प्रकारान्तरसे स्पष्ट करते हैं । दोत्तिगपभवदुउत्तर गदेसणंतरदुगाण बंधो दु । fra लक्खे वि तहावि जहण्णुभयेवि सवत्थ ॥ ६१६ ॥ द्वित्रिकप्रभवद्युन्तरगतेष्वनन्तरद्विकयोः बन्धस्तु । fare क्षेप तथापि जघन्योभयेऽपि सर्वत्र ॥ ६१६ ॥ अर्थ – स्निग्ध या रूक्ष गुणमें समधारामें दो अंशोंके आगे दो दो अंशोंकी वृद्धि होती है । और विषमधारा में तीनके आगे दो २ की वृद्धि होती है । सो इन दोनों में ही अनन्तद्विकका बन्ध होता है । जैसे दो गुणवाले स्निग्ध या रूक्षका चारगुणवाले स्निग्ध या रूक्ष के साथ तथा तीनगुणवाले स्निग्ध या रूक्षका पांच गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष के साथ बन्ध होता है । इसी तरह आगे भी समझना चाहिये । किन्तु जघन्यका बन्ध नहीं होता । दूसरी सब जगह स्निग्ध और रूक्षमें बंध होता है । भावार्थ - स्निग्ध या रूक्ष गुणसे युक्त जिन दो पुलों में बंध होता है उनके स्निग्ध या रूक्ष गुणके अंशोंमें दो अंशोंका अंतर होना चाहिये | जैसे दो चार, तीन पांच, चार छह, पांच सात इत्यादि । इस तरह दो अंश अधिक 1 | For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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