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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । करनेमें कारण है । भावार्थ-शरीर इन्द्रिय मन श्वासोच्छास आदिके द्वारा पुद्गलद्रव्य जीवका उपकार करता है । तथा पुद्गलद्रव्य जीवका उपकार करता है यही नहीं किन्तु परस्पर में भी उपकार करता है । जैसे शास्त्रका उपकार गत्ता वेष्टन करते हैं। यहां पर चकारका ग्रहण किया है इसलिये जिस तरह परस्परमें या एक दूसरेको जीव पुद्गल उपकार करते हैं उस ही तरह अपकार भी करते हैं। इसी अर्थको दो गाथाओंमें स्पष्ट करते हैं।
आहारवग्गणादो तिण्णि सरीराणि होति उस्सासो। णिस्सासोवि य तेजोवग्गणखंधादु तेजंगं ॥ ६०६॥
आहारवर्गणातः त्रीणि शरीराणि भवन्ति उच्छासः ।
निश्वासोपि च तेजोवर्गणास्कन्धात्तुतेजोऽङ्गम् ॥ ६०६॥ __अर्थ तेईस जातिकी वर्गणाओंमेंसे आहारवर्गणाके द्वारा औदारिक वैक्रियिक आहारक ये तीन शरीर और श्वासोच्छ्वास होते हैं । तथा तेजोवर्गणारूप स्कन्धके द्वारा तैजस शरीर बनता है।
भासमणवग्गणादो कमेण भासा मणं च कम्मादो। अट्टविहकम्मदवं होदित्ति जिणेहिं णिटिं॥ ६०७ ॥ भाषामनोवर्गणातः क्रमेण भाषा मनश्च कार्मणतः ।
अष्टविधकर्मद्रव्यं भवतीति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ६०७ ॥ अर्थ-भाषावर्गणाके द्वारा चार प्रकारका वचन, मनोवर्गणाके द्वारा हृदयस्थानमें अष्ट दल कमलके आकार द्रव्यमन, तथा कार्मण वर्गणाके द्वारा आठप्रकारके कर्म बनते हैं। ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। - अविभागी पुद्गल परमाणु स्कन्धरूपमें किस तरह परिणत होती हैं, इसका कारण बताते हैं।
णिद्धत्तं लुक्खत्तं बंधस्स य कारणं तु एयादी। संखेजासंखेजाणंतविहा णिद्धणुक्खगुणा ॥ ६०८॥
स्निग्धत्वं रूक्षत्वं बन्धस्य च कारणं तु एकादयः ।
___ संख्येयासंख्येयानन्तविधा स्निग्धरूक्षगुणाः ॥ ६०८॥ अर्थ-बन्धका कारण स्निग्धत्व या रूक्षत्व है । इस स्निधित्व या रूक्षत्व गुणके एकसे लेकर संख्यात असंख्यात अनन्त भेद हैं । भावार्थ-एक किसी गुणविशेषकी स्निग्धत्व और रूक्षत्व ये दो पर्याय हैं। ये ही बन्धकी कारण हैं । इन पर्यायों के अविभागप्रतिच्छेदोंकी ( शक्तिके निरंश अंश ) अपेक्षा एकसे लेकर संख्यात असंख्यात अनंत भेद हैं ।
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