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गोम्मटसारः। जीवादोणंतगुणो धुवादितिण्हं असंखभागो दु। पल्लस्स तदो तत्तो असंखलोगवहिदो मिच्छो ॥ ५९८ ॥
जीवादनन्तगुणो ध्रुवादितिसृणामसंख्यभागस्तु ।
पल्यस्य ततस्ततः असंख्यलोकावहिता मिथ्या ॥ ५९८ ॥ अर्थ-ध्रुववर्गणा, सांतरनिरंतरवर्गणा, शून्यवर्गणा, इन तीन वर्गणाओंका उत्कृष्ट भेद निकालनेकेलिये गुणकारका प्रमाण जीवराशिसे अनन्तगुणा है । तथा प्रत्येकशरीर वर्गणाका गुणकार पल्यके असंख्यातमे भाग है । और ध्रुवशून्यवर्गणाका गुणकार, मिथ्यादृष्टि जीवराशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना है । इस गुणकारके साथ जघन्य भेदका गुणा करनेसे उत्कृष्ट भेदका प्रमाण निकलता है ।
सेढी सूई पल्ला जगपदरा संखभागगुणगारा । अप्पप्पणअवरादो उक्कस्से होंति णियमेण ॥ ५९९ ॥ श्रेणी सूची पल्यजगत्प्रतरासंख्यभागगुणकाराः ।
आत्मात्मनोवरादुत्कृष्टे भवन्ति नियमेन ॥ ५९९ ॥ अर्थ-बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, नभोवर्गणा इन चार वर्गणाओंके उत्कृष्ट भेदका प्रमाण निकालनेके लिये गुणकारका प्रमाण क्रमसे जगच्छ्रेणीका असंख्यातमा भाग, सूच्यंगुल का असंख्यातमा भाग, पल्यका असंख्यातमा भाग, जगत्प्रतरका असंख्यातमा भाग है। अपने २ गुणकारके प्रमाणसे अपने २ जघन्यका गुणा करनेसे अपने २ उत्कृष्ट भेदका प्रमाण निकलता है। भावार्थ—यहां पर पुद्गलद्रव्यकी तेईस वर्गणाओंका एकपङ्गिकी अपेक्षा वर्णन किया है। जिनको नानापतिकी अपेक्षा इन वर्गणाओंका खरूप जानना हो वे बड़ी टीकामें देख लें । किसी भी वर्तमान एक कालमें उक्त तेईस वर्गणाओंमेंसे कौन २ सी वर्गणा कितनी २ पाई जाती हैं, इस अपेक्षाको लेकर जो वर्णन किया जाता है उसको नाना पतिकी अपेक्षा वर्णन कहते हैं ।
हेट्ठिमउक्कस्सं पुण रूवहियं उवरिमं जहण्णं खु। इदि तेवीसवियप्पा पुग्गलदवा हु जिणदिट्ठा ॥ ६००॥
अधस्तनोत्कृष्टं पुनः रूपाधिकमुपरिमं जघन्यं खलु । __ इति त्रयोविंशतिविकल्पानि पुद्गलद्रव्याणि हि जिनदिष्टानि ॥ ६०० ॥ अर्थ-तेईस वर्गणाओंमेंसे अणुवर्गणाको छोड़कर शेष बाईस वर्गणाओंमें नीचेकी वर्गणाके उत्कृष्ट भेदका जो प्रमाण है उसमें एक मिलानेसे आगे की वर्गणाके जघन्य भेदका प्रमाण होता है । जैसे संख्याताणुवर्गणाके उत्कृष्ट भेदका जो प्रमाण है उसमें एक मिलानेसे असंख्याताणुवर्गणाका जघन्य भेद होता है । और असंख्याताणुवर्गणाके उत्कृष्ट
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