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गोम्मटसारः।
२१७ पुद्गलद्रव्याणां पुनरेकप्रदेशादयो भवन्ति भजनीयाः ।
एकैकस्तु प्रदेशः कालाणूनां ध्रुवो भवति ॥ ५८४ ॥ अर्थ-पुद्गलद्रव्यका क्षेत्र एकप्रदेशसे लेकर यथासम्भव समझना चाहिये-जैसे परमाणुका एक प्रदेशप्रमाण ही क्षेत्र है, तथा व्यणुकका एक प्रदेश और दो प्रदेश भी क्षेत्र है, व्यणुकका एक प्रदेश दो प्रदेश तीन प्रदेश क्षेत्र है इत्यादि । किन्तु एक २ कालाणुका क्षेत्र एक २ प्रदेश ही निश्चित है । भावार्थ-कालद्रव्य अणुरुप ही है । कालाणुके पुद्गलद्रव्यकी तरह स्कन्ध नहीं होते । जितने लोकाकाशके प्रदेश हैं उतनी ही कालाणु हैं । इस लिये रत्नराशिकी तरह एक २ कालाणु लोकाकाशके एक २ प्रदेशपर ही सदा स्थित रहती है । तथा जो कालाणु जिस प्रदेशपर स्थित है वह उसी प्रदेशपर सदा स्थित रहती है। किन्तु पुद्गल द्रव्यके स्कंध होते हैं अतः उसके अनेक प्रकारके क्षेत्र होते हैं।
संखेज्जासंखेजाणंता वा होंति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी एगपदेसो अणुस्स हवे ॥ ५८५ ॥ संख्येयासंख्येयानन्ता वा भवन्ति पुद्गलप्रदेशाः ।
लोकाकाश एव स्थितिरेकप्रदेशोऽणोर्भवेत् ॥ ५८५ ॥ अर्थ-पुद्गल द्रव्यके स्कन्ध संख्यात असंख्यात तथा अनन्त परमाणुओंके होते हैं; परन्तु उन सबकी स्थिति लोकाकाशमें ही होजाती है; किन्तु अणु एक ही प्रदेशमें रहता है । भावार्थ-जिस तरह जलसे अच्छीतरह भरे हुए पात्रमें लवण आदि कई पदार्थ आसकते हैं उसी तरह असंख्यातप्रदेशी लोकमें अनंतप्रदेशी स्कन्ध आदि समा सकते हैं।
लोगागासपदेसा छहवेहि फुडा सदा होंति । सबमलोगागासं अण्णेहिं विवजियं होदि ॥ ५८६ ॥ लोकाकाशप्रदेशाः षडूद्रव्यैः स्फुटाः सदा भवन्ति ।
सर्वमलोकाकाशमन्यैर्विवर्जितं भवति ॥ ५८६ ॥ अर्थ-लोकाकाशके समस्त प्रदेशोंमें छहों द्रव्य व्याप्त हैं । और अलोकाकाश आकाशको छोड़कर शेषद्रव्योंसे सर्वथा रहित है। इस तरह क्षेत्र अधिकारका वर्णन करके संख्या अधिकारको कहते हैं ।
जीवा अणंतसंखाणंतगुणा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एकेकं लोगपदेसप्पमा कालो ॥ ५८७ ॥ जीवा अनन्तसंख्या अनन्तगुणाः पुद्गला हि ततस्तु । धर्मत्रिकमेकैकं लोकप्रदेशप्रमः कालः ॥ ५८७ ॥
गो.२८
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