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गोम्मटसारः ।
धमाधम्मादीर्णं अगुरुगुलहुगं तु छहिँ वि वड्डीहिं । हाणीहिं विवहंतो हायंतो वट्टदे जला ।। ५६८ ॥
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वर्तनाका कारण कालद्रव्य किसतरह है यह स्पष्ट करते हैं ।
५६८ ।।
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धर्माधर्मादीनाम गुरु लघुकं तु षडूभिरपि वृद्धिभिः । हानिभिरपि वर्धमानं हीयमानं वर्तते यस्मात् ॥ अर्थ - धर्मादिक द्रव्योंमें अगुरुलघु नामका एक गुण है । इस गुणमें तथा इसके निमित्तसे धर्मादिक द्रव्यके शेष गुणोंमें छह प्रकारकी वृद्धि तथा छह प्रकारकी हानि होती है । और इन वृद्धि हानिके निमित्तसे वर्धमान तथा हीयमान धर्मादि द्रव्यों में वर्तना सम्भव है । भावार्थ - धर्मादि द्रव्यों में वसत्ताका नियामक कारणभूत अगुरुलघु गुण है । इसके अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेदों में अनन्तभागवृद्धि असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धि, तथा अन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनंतगुणहानि ये छह हानि होती हैं । तथा इस गुणके निमित्तसे दूसरे गुणोंमें भी ये हानि वृद्धि होती हैं । इसलिये धर्मादि द्रव्योंके इस परिणमनका भी बा सहकारी कारण मुख्य काल द्रव्य ही है ।
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णय परिणमदि सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं । विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदु ॥ ५६९ ॥
न च परिणमति स्वयं स नच परिणामयति अन्यदन्यैः । विविध परिणामिकानां भवति हि कालः स्वयं हेतुः ॥ ५६९ ॥
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अर्थ — परिणामी होनेसे कालद्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणत हो जाय यह बात नहीं है, वह तो स्वयं दूसरे द्रव्यरूप परिणत होता है, और न दूसरे द्रव्योंको अपने स्वरूप अथवा भिन्नद्रव्यखरूप परणमाता है; किन्तु अपने खभावसे ही अपने २ योग्य पर्यायोंसे परिणत होनेवाले द्रव्यों के परिणमनमें कालद्रव्य उदासीनता से स्वयं बाह्य सहकारी होजाता है । कालं अस्सिय दवं सगसगपज्जायपरिणदं होदि । पज्जायावद्वाणं सुद्धणये होदि खणमेत्तं ।। ५७० ॥
कालमाश्रित्य द्रव्यं स्वकस्वकपर्यायपरिणतं भवति ।
पर्यायावस्थानं शुद्धनयेन भवति क्षणमात्रम् ॥ ५७० ॥ अर्थ — कालके आश्रयसे प्रत्येक द्रव्य अपने २ योग्य इन पर्यायोंकी स्थिती शुद्धनयसे एक क्षण मात्र रहती है ।
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पर्यायोंसे परिणत होता है ।