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गोम्मटसारः।
१९९ कियोंकी अपेक्षासे है । सो जिस पर्यायको छोड़कर देव या नारकी उत्पन्न हो उस पर्यायके अन्तके अन्तर्मुहूर्त में तथा देव नारक पर्यायको छोड़कर जिस पर्यायमें उत्पन्न हो उस पर्यायके आदिके अन्तर्मुहूर्तमें वही लेश्या होती है । इस ही लिये छहों लेश्याओंके उक्त उत्कृष्ट कालप्रमाणमें दो २ अन्तर्मुहूर्तका काल अधिक २ समझना । तथा पीत और पद्मलेश्याके कालमें कुछ कम आधा सागर भी अधिक होता है। जैसे सौधर्म और ईशान वर्गमें दो सागरकी आयु है । परन्तु यदि कोई घातायुष्क सम्यग्दृष्टि सौधर्म या ईशान वर्गमें उत्पन्न हो तो उसकी अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरकी भी आयु हो सकती है । इस ही तरह घातायुष्क मिथ्यादृष्टिकी पल्यके असंख्यातमें भागप्रमाण आयु अधिक हो सकती है । परन्तु यह अधिकपना सौधर्म वर्गसे लेकर सहस्रार वर्ग पर्यन्त ही है । क्योंकि आगे घातायुष्क जीव उत्पन्न नहीं होता।
॥ इति कालाधिकारः॥
दो गाथाओंमें अन्तर अधिकारका वर्णन करते हैं ।
अंतरमवरुक्कस्सं किण्हतियाणं मुहुत्तअंतं तु । उवहीणं तेत्तीसं अहियं होदित्ति णिदिलं ॥ ५५२ ॥ तेउतियाणं एवं णवरि य उक्कस्स विरहकालो दु। पोग्गलवरिवहा हु असंखेजा होंति णियमेण ॥ ५५३ ॥
अन्तरमवरोत्कृष्टं कृष्णत्रयाणां मुहूर्तान्तस्तु । उद्धीनां त्रयस्त्रिंशदधिकं भवतीति निर्दिष्टम् ॥ ५५२ ॥ तेजस्त्रयाणामेवं नवरि च उत्कृष्टविरहकालस्तु ।
पुद्गलपरिवर्ता हि असंख्यया भवन्ति नियमेन ॥ ५५३ ॥ अर्थ-कृष्ण आदि तीन अशुभलेश्याओंका जघन्य अंतर अन्तर्मुहूर्तमात्र है । और उत्कृष्ट अंतर कुछ अधिक तेतीस सागर होता है । पीत आदि तीन शुभ लेश्याओंका अंतर भी इस ही प्रकार है; परन्तु कुछ विशेषता है । शुभ लेश्याओंका उत्कृष्ट अंतर नियमसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है । भावार्थ-किसी विवक्षित एक लेश्याको छोड़कर दूसरी लेश्यारूप परिणमन करके जितने कालमें फिरसे विवक्षित लेश्यारूप परिणमन करै उतने कालको विवक्षित लेश्याका विरहकाल या अन्तर कहते हैं । इस प्रकारका अंतर कृष्णलेश्याका जघन्य अन्तर्मुहूर्तमात्र है । उत्कृष्ट अंतर दश अन्तर्मुहूर्त और आठवर्षकम एक कोटिपूर्व वर्ष अधिक तेतीस सागर प्रमाण है । इस ही प्रकार नील तथा कापोतलेश्याका भी अंतर जानना । परन्तु इतनी विशेषता है कि नील लेश्याके अंतरमें आठ अंतर्मुहूर्त और कापोतलेश्याके अंतरमें छह अंतर्मुहूर्त ही अधिक हैं । अब शुभ लेश्या
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