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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । संक्रमणे षट्स्थानानि हानिषु वृद्धिषु भवन्ति तन्नामानि ।
परिमाणं च च पूर्वमुक्तक्रमं भवति श्रुतज्ञाने ॥ ५०५ ॥ अर्थ-संक्रमणाधिकारमें हानि और वृद्धि दोनों अवस्थाओंमें षट्स्थान होते हैं । इन षट्रस्थानोंके नाम तथा परिमाण पहले श्रुतज्ञानमार्गणामें जो कहे हैं वेही यहांपर भी समझना । भावार्थ-षट्स्थानोंके नाम ये हैं अनन्तभाग असंख्यातभाग संख्यातभाग संख्यातगुण असंख्यातगुण अनन्तगुण । इन षट्स्थानोंकी सहनानी क्रमसे उवैक चतुरंक पञ्चाङ्क षडङ्क सप्ताङ्क अष्टाङ्क है । और यहांपर अनन्तका प्रमाण जीवराशिमात्र, असंख्यातका प्रमाण असंख्यातलोकमात्र, और संख्यातका प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात है। लेश्याओंके कर्माधिकारको कहते हैं ।
पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्णमझदेसम्हि । फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता ते विचितंति ॥ ५०६ ॥ हिम्मूलखंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणितुं पडिदाई । खाउं फलई इदि जं मणेण वयणं हवे कम्मं ॥ ५०७ ॥ पथिका ये षट् पुरुषाः परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे । फलभरितवृक्षमेकं प्रेक्षित्वा ते विचिन्तयन्ति ॥ ५०६ ॥ निर्मूलस्कन्धशाखोपशाखं छित्वा चित्वा पतितानि ।
खादितुं फलानि इति यन्मनसा वचनं भवेत् कर्म ॥ ५०७ ।। अर्थ-कृष्ण आदि छह लेश्यावाले छह पथिक वनके मध्यमें मार्गसे भ्रष्ट होकर फलोंसे पूर्ण किसी वृक्षको देखकर अपने २ मनमें इस प्रकार विचार करते हैं, और उसके अनुसार वचन कहते हैं । कृष्णलेश्यावाला विचार करता है और कहता है कि मैं इस वृक्षको मूलसे उखाड़कर इसके फलोंका भक्षण करूंगा । और नीललेश्यावाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्षको स्कन्धसे काटकर इसके फल खाऊंगा । कापोतलेश्यावाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्षकी बड़ी २ शाखाओंको काटकर इसके फलोंको खाऊंगा । पीतलेश्यावाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्षकी छोटी २ शाखाओंको काटकर इसके फलोंकों खाऊंगा । पद्मलेश्यावाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्षके फलोंको तोड़कर खाऊंगा । शुक्ललेश्यावाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्षसे स्वयं टूट कर पड़े हुए फलोंको खाऊंगा । इस तरह जो मनपूर्वक वचनादिकी प्रवृत्ति होती है वह लेश्याका कर्म है । यहां पर यह एक दृष्टान्तमात्र दिया. गया है इसलिये इस ही तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये।
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