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गोम्मटसारः।
१७९ सर्वेषां सूक्ष्मानां कापोताः सर्वे विग्रहे शुक्लाः ।
सर्वो मिश्रो देहः कपोतवर्णो भवेनियमात् ॥ ४९७ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण सूक्ष्म जीवोंकी देह कपोतवर्ण है । विग्रहगतिमें सम्पूर्ण जीवोंका शरीर शुक्लवर्ण है । तथा अपनी २ पर्याप्तिके प्रारम्भ समयसे शरीरपर्याप्तिपर्यन्त समस्त जीवोंका शरीर नियमसे कपोतवर्ण होता है । इस तरह वर्णाधिकारके अनन्तर पांच गाथाओंमें परिणामाधिकारको कहते हैं ।
लोगाणमसंखेजा उदयट्ठाणा कसायगा होति । तत्थ किलिहा असुहा सुहा विसुद्धा तदालावा ॥ ४९८॥ लोकानामसंख्येयान्युदयस्थानानि कषायगाणि भवन्ति ।
तत्र क्लिष्टान्यशुभानि शुभानि विशुद्धानि तदालापात् ॥ ९४८ ॥ अर्थ-कषायोंके उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इसमेंसे अशुभ लेश्याओंके संक्लेशरूप स्थान यद्यपि सामान्यसे असंख्यात लोकप्रमाण हैं; तथापि विशेषताकी अपेक्षा असंख्यातलोक प्रमाणमें असंख्यात लोकप्रमाण राशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसके बहुभाग प्रमाण संक्लेशरूप स्थान हैं । और एक भागप्रमाण शुभ लेश्याओंके विशुद्ध स्थानहैं । परन्तु सामान्यसे ये भी असंख्यात लोकप्रमाण ही हैं।।
तिवतमा तिवतरा तिवा असुहा सुहा तहा मंदा। मंदतरा मंदतमा छट्ठाणगया हु पत्तेयं ॥ ४९९ ॥ तीव्रतमास्तीव्रतरास्तीबा अशुभाः शुभास्तथा मन्दाः ।
मन्दतरा मन्दतमाः षट्स्थानगता हि प्रत्येकम् ॥ ४९९ ॥ अर्थ-अशुभ लेश्यासम्बन्धी तीव्रतम तीव्रतर तीव्र ये तीन स्थान, और शुभलेश्यासम्बन्धी मन्द मन्दतर मन्दतम ये तीन स्थान होते हैं; क्योंकि कृष्ण लेश्यादि छह लेश्याओंके शुभ स्थानोंमें जघन्यसे उत्कृष्टपर्यन्त और अशुभ स्थानोंमें उत्कृष्टसे जघन्यपर्यन्त प्रत्येकमें षट्स्थानपतित हानिवृद्धि होती है।
असुहाणं वरमज्झिमअवरंसे किण्हणीलकाउतिए। ... परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स ॥ ५०० ॥ ___ अशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकापोतत्रिकानाम् ।
परिणमति क्रमेणात्मा परिहानित: क्लेशस्य ॥ ५०० ॥ अर्थ-कृष्ण नील कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओंके उत्कृष्ट मध्यम जघन्य अंशरूपमें यह आत्मा क्रमसे संक्लेशकी हानि होनेसे परिणमन करता है। भावार्थ-इस आत्माकी जिस २ तरह संक्लेशपरिणति कम होती जाती है उसी २ तरह यह आत्मा
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