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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १७३ अर्थ-चौदह प्रकारके जीवसमास और अट्ठाईस प्रकारके इन्द्रियोंके विषय इनसे जो विरक्त नहीं हैं उनको असंयत कहते हैं । अट्ठाईस इन्द्रियविषयों के नाम गिनाते हैं। पंचरसपंचवण्णा दो गंधा अट्ठफाससत्तसरा। मणसहिदहावीसा इंदियविसया मुणेदना ॥ ४७८ ॥ पञ्चरसपञ्चवर्णाः द्वौ गन्धौ अष्टस्पर्शसप्तस्वराः। मनःसहिताः अष्टाविंशतिः इन्द्रियविषयाः मन्तव्याः॥ ४७८ ॥ अर्थ-पांच रस ( मीठा खट्टा कषायला कडुआ चरपरा ) पांच वर्ण (सफेद पीला हरा लाल काला ) दो गंध (सुगंध दुर्गध ) आठ स्पर्श ( कोमल कठोर हलका भारी शीत उष्ण रूखा चिकना ) आठ खर (षड्ज ऋषभ गांधार मध्यम पंचम धैवत निषाद ) और एक मन इस तरह ये इन्द्रियोंके अट्ठाईस विषय हैं। संयममार्गणामें जीवसंख्या बताते हैं। पमदादिचउण्हजुदी सामयियदुगं कमेण सेसतियं । सत्तसहस्सा णवसय णवलक्खा तीहि परिहीणा ॥ ४७९ ॥ प्रमत्तादिचतुर्णा युतिः सामायिकद्विकं क्रमेण शेषत्रिकम् । सप्त सहस्राणि नव शतानि नव लक्षाणि त्रिभिः परिहीनानि ॥ ४७९ ॥ अर्थ-प्रमत्तादि चार गुणस्थानवर्ती जिवोंका जितना प्रमाण है उतने सामायिकसंयमी होते हैं । और उतने ही छेदोपस्थापनासंयमी होते हैं । परिहारविशुद्धि संयमवाले तीन कम सात हजार ( ६९९७ ), सूक्ष्मसांपराय संयमवाले तीन कम नौ सौ (८९७), यथाख्यात संयमवाले तीन कम नौ लाख ( ८९९९९७ ) होते हैं । पल्लासंखेजदिमं विरदाविरदाण दवपरिमाणं । पुव्वुत्तरासिहीणा संसारी अविरदाण पमा ॥ ४८०॥ पल्यासंख्येयं विरताविरतानां द्रव्यपरिमाणम् । पूर्वोक्तराशिहीना संसारिणः अविरतानां प्रमा ॥४८०॥ अर्थ-पल्यके असंख्यातमे भाग देशसंयमी जीवद्रव्यका प्रमाण है। उक्त संयमियोंकी राशियोंको संसारी जीवराशिमेंसे घटाने पर जो शेष रहे उतना असंयमियोंका प्रमाण है। ॥ इति संयममार्गणाधिकारः॥ क्रमप्राप्त दर्शनमार्गणाका निरूपण करते हैं । १ आठ करोड़ नव्वे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन ( ८९०९९१०३) For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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