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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। आवल्यसंख्यभागा जघन्यद्रव्यस्य भवन्ति पर्यायाः । कालस्य जघन्यतः असंख्यगुणहीनमात्रा हि ॥ ४२१ ॥ अर्थ-जघन्य देशावधिक विषयभूत द्रव्यकी पर्याय आवलीके असंख्यातमे भागप्रमाण हैं । और जघन्य देशावधिके विषयभूत कालका जितना प्रमाण है उससे असंख्यातगुणा हीन जघन्य देशावधिके विषयभूत भावका प्रमाण है। सबोहित्ति य कमसो आवलिअसंखभागगुणिदकमा। दवाणं भावाणं पदसंखा सरिसगा होंति ॥ ४२२ ॥ सर्वावधिरिति च क्रमशः आवल्यसंख्यभागगुणितक्रमाः । द्रव्यानां भावानां पदसंख्याः सदृशकाः भवन्ति ॥ ४२२ ॥ अर्थ-देशावधिके जघन्य द्रव्यकी पर्यायरूप भाव, जघन्य देशावधिसे सर्वावधिपर्यन्त आवलीके असंख्यातमे भागसे गुणितक्रम हैं । अत एव द्रव्य तथा भावके पदोंकी संख्या सदृश है । भावार्थ-जहां पर देशावधिके विषयभूत द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य भेद है वहां पर भावकी अपेक्षा भी आवली के असंख्यातमे भाग प्रमाण जघन्य भेद होता है । और जहां पर द्रव्यकी अपेक्षा दूसरा भेद होता है, वहां भावकी अपेक्षा भी प्रथम भेदसे आवलीके असंख्यातमे भागगुणा दूसरा भेद होता है। जहां पर द्रव्यकी अपेक्षा तीसरा भेद होता है वहां पर भावकी अपेक्षा दूसरे भेदसे आवलीके असंख्यातमे भागगुणा तीसरा भेद होता है । इस ही क्रमसे सर्वावधिपर्यन्त जानना । अवधि ज्ञानके द्रव्यकी अपेक्षासे जितने भेद हैं उतने ही भेद भावकी अपेक्षासे हैं । अत एव द्रव्य तथा भावकी पदसंख्या सदृश है। नरक गतिमें अवधिक विषयभूत क्षेत्रका प्रमाण बताते हैं। सत्तमखिदिम्मि कोसं कोसस्सद्धं पवढदे ताव । जाव य पढमे णिरये जोयणमेकं हवे पुण्णं ॥ ४२३ ॥ सप्तमक्षितौ कोशं क्रोशस्यार्धाध प्रवर्धते तावत् ।। यावच्च प्रथमे निरये योजनमेकं भवेत् पूर्णम् ।। ४२३ ॥ अर्थ-सातमी भूमिमें अवधि ज्ञान के विषयभूत क्षेत्रका प्रमाण एक कोस है । इसके ऊपर आध २ कोस की वृद्धि तब तक होती है जब तक कि प्रथम नरकमें अवधि ज्ञानके विषयभूत क्षेत्रका प्रमाण पूर्ण एक योजन हो । भावार्थ-सातमी पृथ्वीमें अवधिका क्षेत्र एक कोस है । इसके ऊपर प्रथम भूमिके अवधि-क्षेत्र पर्यन्त क्रमसे आध २ कोसकी वृद्धि होती है । प्रथम भूमिमें अवधि-क्षेत्रका प्रमाण एक योजन है। तिर्यग्गति और मनुष्यगतिमें अवधिको बताते हैं । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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