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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-देशावधिका जो उत्कृष्ट द्रव्य-प्रमाण है उसमें ध्रुवहारका भाग देनेसे नियमसे परमावधिके जघन्य द्रव्यका प्रमाण निकलता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है । परमावधिके उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण बताते हैं ।
परमावहिस्स भेदा सगउग्गाहणवियप्पहदतेऊ । चरमे हारपमाणं जेठुस्स य होदि दव्वं तु ॥ ४१३ ॥ परमावधेर्भेदाः स्वकावगाहनविकल्पहततेजाः।
चरमे हारप्रमाणं ज्येष्ठस्य च भवति द्रव्यं तु ॥ ४१३ ॥ अर्थ-अपनी ( तेजस्कायिक जीवराशि ) अवगाहनाके भेदोंका जो प्रमाण है, उसका तेजस्कायिक जीवराशिके साथ गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतने ही परमावधिके भेद हैं । इनमेंसे सर्वोत्कृष्ट अन्तिम भेदमें द्रव्य ध्रुवहारप्रमाण होता है।
सवावहिस्स एको परमाणू होदि णिवियप्पो सो। गंगामहाणइस्स पवाहोघ धुवो हवे हारो ॥ ४१४॥ सर्वावधेरेकः परमाणुर्भवति निर्विकल्पः सः ।
गंगामहानद्याः प्रवाह इव ध्रुवो भवेत् हारः ॥ ४१४ ॥ अर्थ-परमावधिके उत्कृष्ट द्रव्यप्रमाणमें ध्रुवहारका एकवार भाग देनेसे लब्ध एक परमाणु-मात्र द्रव्य सर्वावधिका विषय होता है। यह ज्ञान तथा इसका विषयभूत परमाणु निर्विकल्पक है । भागहार गंगा महानदीके प्रवाहकी तरह ध्रुव है । भावार्थ-जिसतरह गंगा महानदीका प्रवाह हिमाचलसे निकलकर अविच्छिन्न प्रवाहके द्वारा वहता हुआ पूर्व समुद्र में जाकर अवस्थित होगया है। उसी तरह यह भागहार जघन्य देशावधि द्रव्यप्रमाणसे आगे परमावधिके सर्वोत्कृष्ट द्रव्यपर्यन्त अविच्छिन्न रूपसे जाते २ परमाणुपर जाकर अवस्थित होगया है।
परमोहिदबभेदा जेत्तियमेत्ता हु तेत्तिया होति । . तस्सेव खेत्तकालवियप्पा विसया असंखगुणिदकमा ॥ ४१५ ॥
परमावधिद्रव्यभेदा यावन्मात्रा हि तावन्मात्रा भवन्ति ।
तस्यैव क्षेत्रकालविकल्पा विषया असंख्यगुणितक्रमाः ॥ ४१५ ॥ अर्थ-परमावधिके जितने द्रव्यकी अपेक्षासे भेद हैं उतने ही भेद क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे हैं । परन्तु उनका विषय असंख्यातगुणितक्रम है। असंख्यातगुणितक्रम किस तरहसे है यह बताते हैं।
आवलिअसंखभागा इच्छिदगच्छधणमाणमेत्ताओ। देसावहिस्स खेत्ते काले वि य होंति संवग्गे ॥ ४१६ ॥
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