________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
गोम्मटसारः।
१४९ अर्थ-इस प्रकार असंख्यात वार ध्रुवहारका भाग देते २ देशावधि ज्ञानके मध्य भेदोंमेंसे जहां पर प्रथम भेद विस्रसोपचयसहित तैजस शरीरको विषय करता है, अथवा इसके आगेका दूसरा मध्यभेद विस्रसोपचयसहित कार्मण शरीरको विषय करता है, अथवा तीसरा भेद विस्रसोपचयरहित तैजस वर्गणाको विषय करता है, अथवा चौथा भेद विस्रसोपचयरहित भाषा वर्गणाको विषय करता है, अथवा पांचमा भेद विस्रसोपचयरिहत मनोवर्गणाको विषय करता है, वहां पर सामान्यसे देशावधिके उक्त पांचो ही मध्य भेदोंके क्षेत्रका प्रमाण असंख्यात द्वीपसमुद्र और कालका प्रमाण असंख्यात वर्ष है । परन्तु विशेषताकी अपेक्षासे पूर्व २ भेदके क्षेत्र और कालके प्रमाणसे उत्तरोत्तर भेदके क्षेत्र और कालका प्रमाण असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा है; क्योंकि असंख्यातके भी असंख्यात भेद होते हैं।
तत्तो कम्मइयस्सिगिसमयपबद्धं विविस्ससोवचयं । धुवहारस्स विभजं सबोही जाव ताव हवे ॥ ३९६ ॥
ततः कार्मणस्य एकसमयप्रबद्धं विविस्रसोपचयम् ।
ध्रुवहारस्य विभाज्यं सर्वावधिः यावत् तावत् भवेत् ॥ ३९६ ॥ अर्थ-इसके अनन्तर मनोवर्गणामें ध्रुवहारका भाग देना चाहिये । इस तरह भाग देते २ विस्रसोपचयरहित कार्मणके एक समयप्रबद्धको विषय करता है । उक्त क्रमानुसार इसमें भी सर्वावधिके विषयपर्यन्त ध्रुवहारका भाग देते जाना चाहिये ।
एदम्हि विभजते दुचरिमदेसावहिम्मि वग्गणयं । चरिमे कम्मइयस्सिगिवग्गणमिगिवारभजिदं तु ॥ ३९७ ॥ एतस्मिन् विभज्यमाने द्विचरमदेशावधौ वर्गणा।
चरमे कार्मणस्यैकवर्गणा एकवारभक्ता तु ॥ ३९७ ॥ अर्थ—इस समयप्रबद्ध में भी ध्रुवहारका भाग देनेसे देशावधि ज्ञानके द्विचरम भेदके विषयभूत द्रव्यका कार्मण वर्गणारूप प्रमाण निकलता है। इस एक कार्मण वर्गणामें भी एकवार ध्रुवहारका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना देशावधिके चरम भेदके विषयभूत द्रव्यका प्रमाण निकलता है।
अंगुलअसंखभागे दववियप्पे गदे दु खेत्तम्हि । एगागासपदेसो वहृदि संपुषणलोगोत्ति ॥ ३९८ ॥
अङ्गुलासंख्यभागे द्रव्यविकल्पे गते तु क्षेत्रे ।
एकाकाशप्रदेशों वर्धते संपूर्ण लोक इति ॥ ३९८ ॥ अर्थ-सूच्यंगुलके असंख्यातमे भाग प्रमाण जब द्रव्य के विकल्प होजॉय तब क्षेत्रकी
For Private And Personal